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________________ है । [अर्थात् विनीत ही प्रशंसा पात्र बनता है अन्य नहीं] -अविनीत कभी भी लोक में कीर्ति-यश को प्राप्त नहीं कर सकता । जाणंतावि य विणयं केइ कम्माणु भाव दोसेणं । निच्छंति पउंजित्ता अभिभूया रागदोसेहिं ॥ १६ ॥ कितने ही जीव विनय का स्वरूप, फलादि जानते हुए भी उस प्रकार के प्रबल अशुभ कर्मोदय के प्रभाव से राग द्वेष से अभिभूत होकर विनय की प्रवृत्ति करने की इच्छा नहीं करते । अभणंतस्स य कस्सवि पसरइ किंचि जसं च लोगंमि । पुरिसस्स महिलियाए विणीय विणयस्स दंतस्स ॥ १७ ॥ न बोलनेवाला या अधिक अध्ययन न करने वालोंकी भी विनय से सदा विनीत नम्र और इंद्रिय दमी कितने ही स्त्री-पुरुषों की यश-कीर्ति लोकमें सर्वत्र प्रसरित होती है । [इस में विद्या से भी विनय की प्राधान्यता दर्शायी है] दिति फलं विज्जाओ पुरिसाणं भागधिज्ज भरियाणं । न हु भागधिज्ज परिवज्जियस्स विज्जा फलं दिति ॥ १८ ॥ विनय से प्राप्त भाग्यशालीता युक्त पुरुषों को ही विद्या फलदाता होती है । अविनय से प्राप्त भाग्यहीनता युक्त जीवको विद्या फलवती नहीं होती। विज्जं परिभवमाणो आयरियाणं गुणे पणासंतो। रिसिघायगाणं लोयं वच्चइ मिच्छत संजुत्तो ॥ १९ ॥ विद्याका तिरस्कार दुरुपयोग करनेवाला और निंदा-अवहेलनादि द्वारा ज्ञानदाता आचार्य भगवंतादिके गुणों का नाशक गाढमिथ्यात्व से मोहित होकर ऋषिघातक की गति-दुर्गति को पाता है | नहु सुलहा आयरिया विज्जाणं दायगा सम्मत्ताणं । उज्जुय अपरित्तंता न हु सुलहा सिक्खगा सीसा ॥ २० ॥ वास्तव में समस्त श्रुतज्ञान दाता आचार्य की प्राप्ति सुलभ नहीं वैसे ही सरल और ज्ञानाभ्यास में सतत उद्यमी शिष्य मिलना भी सुलभ नहीं है । विणयस्स गुणविसेसा एव मए वनिया समासेणं । आयरियाणं च गुणे एगमणा भे निसामेह ॥ २१ ॥ पूर्वाचार्य रचित 'सिरिचंदावेज्झय पइण्णयं'
SR No.022597
Book TitleSirichandvejjhay Painnayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvacharya, Kalapurnasuri, Jayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages34
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_chandravedhyak
File Size3 MB
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