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________________ तो पुव्वं बुद्धिमया, आलोइय निंदिउं गुरुसग्गासे । कायव्वा अप्पसुद्धी, पव्वज्जाइ य जे सरइ ॥ १५१ ॥ इस कारण से बुद्धिशाली मुनिको सदगुरू के पास दीक्षा के दिन से किये हुए पापों को याद कर उसकी आलोचना, निंदा, गर्हा करने के द्वारा पाप की शुद्धि अवश्य कर लेनी चाहिए | ताहे जं दिज्ज गुरु, पायच्छित्तं जहारिसं जस्स । इच्छामित्ति भणिता, अहमवि नित्यारिओ तुब्भे ॥ १५२ ॥ उस समय गुरू को जो उचित लगे वह प्रायश्चित्त दे उसका इच्छा पूर्वक स्वीकार करे और गुरू का अनुग्रह उपकार मानता हुआ कहें आपने मुझे इस पाप पंक से निकालकर भव सागर से पार किया है । परमत्थाउ मुणीणं, अवराहो नेव होइ कायव्वो । च्छलियस्स पमाएणं पच्छित्तमवस्स कायव्वं ॥ १५३ ॥ परमार्थ से मुनियों को अपराध करना ही नही चाहिए । प्रमादवश क्वचित् अपराध हो जाय तो उसका प्रायश्चित अवश्य कर लेना चाहिए । पच्छित्तेण विसोही पमायबहुलस्स होइ जीवस्स । तेण तयंकुसभूयं चरियव्वं चरणरक्खट्ठा ॥ १५४ ॥ प्रमाद की बहुलता वाले जीव की विशुद्धि प्रायश्चित्त से ही हो सकती है | चारित्र की रक्षा के लिए दोष के अंकुशभूत प्रायश्चित्त का अवश्य आचरण करना चाहिए । 1 न वि सुज्झति ससल्ला जह भणियं सव्वभावदंसीहिं । मरणपुणब्भवरहिया, आलोयणनिंदणा साहू ॥ १५५ ॥ शल्ययुक्त जीवोंकी कभी भी शुद्धि नहीं होती ऐसा श्री सर्वभावदर्शी श्री जिनेश्वर भगवंतने कहा है । पाप की आलोचना, निन्दा करनेवाले मुनि मरण और जन्म से रहित होते हैं । - इक्कं ससल्लमरणं मरिऊण महम्भवं (यं) मि संसारे । पुणरवि भमंति जीवा जम्मणमरणाइं बहुयाइं ॥ १५६ ॥ एक बार भी शल्य सहित मरण से मरकर जीव महाभयानक इस संसार में बार बार अनेक जन्म और मरण करते हुए भ्रमण करता है । पूर्वाचार्य रचित 'सिरिवंदावेज्झय पइष्णयं' २९
SR No.022597
Book TitleSirichandvejjhay Painnayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvacharya, Kalapurnasuri, Jayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages34
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_chandravedhyak
File Size3 MB
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