SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 25
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ बाहिति इंदियाई पुचमकारियपयत्तचारितस्स । अकयपरिकम्मकीवो, मुज्झइ आराहणा. काले ॥ १२२ ॥ . । पूर्व में चारित्र पालन में प्रबल पुरुषार्थ न करनेवाले मुनि को मरण समय में इंद्रियाँ समाधि में व्याधि विज उत्पन्न करती हैं । इससे अंतिम आराधना में वह भयभीत हो जाता है। आगम संजुत्तस्स वि इंदियरसलोलुपं पइटस्स ।। जइ वि मरणे समाही हविज्ज न वि हुज्ज बहुयाणं ॥ १२३ ॥ आगमाभ्यासी मुनि इंद्रियों की आसक्ति वाला हो तो मरण समयमें समाधि रहे और न भी रहे । शास्त्रवचन याद आ जाय तो रहे और इंद्रिय गृद्धि आ जाय तो शास्त्र वचन विस्मृत हो जाने से समाधि नहीं रहे । प्रायः ऐसा होता असमत्तसुओ वि मुणी पुव्वं सुकयपरिकम्मपरिहत्यो । संजममरणपइण्णं सुहमव्वहिओ समाणेइ ॥ १२४ ॥ ___अल्पज्ञानी भी तपादि अनुष्ठानसे संयम और मरण की प्रतिज्ञा को व्याकुल हुए बिना अच्छी प्रकार पूर्ण करता है । मरण समय में समाधि रख सकता है । इंदियसुहसाउलओ घोर परीसहपरब्बसविउत्तो । अकयपरिकम्मकीवो, मुज्झइ आराहणाकाले ॥ १२५ ॥ इंद्रियों की शाता में व्याकुल, घोर परीषहों की पराधीनता से ग्रसित, तपादि का अनभ्यासी कायर मुनि अंतिम आराधना के काल में भयभीत हो जाता है। न चएइ किंचि काउं पुव्वं सुकय परिकम्मबलीयस्स । खोहं परिसहच, धिइबलविणिवारिया मरणे ॥ १२६ ॥ पूर्व से ही अच्छी प्रकार तप संयम की साधना से शक्तिशाली बने मुनि को मरण समय में धृतिबलसे दूर की हुई परीषहकी सेना कोई भी विज करने में समर्थ नहीं रहती । [समाधि भाव से चलित नहीं कर सकती] पुव्वं कारियजोगो अनियाणो इहिऊण मइकुसलो ।। सव्वत्थ-अपडिबद्धो, सकज्जजोगं समाणेइ ॥ १२७ ॥ ___प्रारंभ से ही कठिन तप-संयम की साधना करनेवाला बुद्धिमान मुनि स्वयं के हित का विचार कर नियाणारहित द्रव्य-क्षेत्रादि के प्रतिबंध से दूर वह मुनि २४ पूर्वाचार्य रक्ति सिरिचंदावेज्मय पइन्नयं
SR No.022597
Book TitleSirichandvejjhay Painnayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvacharya, Kalapurnasuri, Jayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages34
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_chandravedhyak
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy