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. कितने ही जीव समकित की नियमा प्रशंसा करते हैं, कितने ही चारित्र --- शुद्धि की, तो कितने ही ज्ञान की प्रशंसा करते हैं। [यहां अपेक्षाभेद से एक एक की मुख्यता दर्शायी है] सम्मत्त चरित्ताणं दुहंपि समागयाण सत्ताणं । .. किं तत्थ गिहियव्वं पुरिसेणं बुद्धिमन्तेणं ॥ ११० ॥
___ सम्यक्त्व और चारित्र दोनों गुण साथ में प्राप्त होते हो तो बुद्धिशाली पुरुष को कौनसा प्रथम ग्रहण करना ? सम्मत्तं अचरितस्स, हवइ जहा कण्ह-सेणियाणं तु । ..... जे पुण चरित्तमंता, तेसिं नियमेण संमत्तं ॥ १११ ॥
, चारित्र के बिना समकित कृष्ण-श्रेणिकराजा के समान होता है। परंतु चारित्रवान जो है उनमें तो नियम से सम्यक्त्व होता ही है । [अत: चारित्र गुण की श्रेष्ठता होने से प्रथम चारित्र ग्रहण करना] भटेण चरित्ताओ, सुट्यरं दंसणं गहेयव्वं । ..... सिज्झंति चरणरहिया, दंसणरहिया न सिज्झति ॥ ११२ ॥
__ चारित्र से भ्रष्ट हो जाने पर भी श्रेष्ठतर सम्यक्त्व को.लो ग्रहण कर रखना ही चाहिए क्योंकि द्रव्य चारित्र से रहित व्यक्ति सिद्ध हो सकता है परंतु दर्शन गुण रहित जीव सिद्ध नहीं हो सकता । उक्कोसचरित्तो वि य पडेइ मिच्छतभावओ कोइ । ... किं पुण सम्मदिट्टी, सरागधम्ममि वस॒तो ॥ ११३ ॥
उत्कृष्ट चारित्रधर भी किसी मिथ्यात्व के योग से संयम से गिर जाता है । तो सराग धर्ममें प्रवर्त समकिती आत्मा पतित हो जाय इसमें क्या आश्चर्य ? अविरहिया जस्समई पंचहि समिहि गुत्तीहिं ।
... न कुणइ रागदोसे, तस्स चरितं हवइ सुद्धं ॥ ११४ ॥
जिस मुनि की बुद्धि पांच समिति, तीन गुप्ति से युक्त है और जो राग द्वेष नहीं करता है । उसका चारित्र शुद्ध है। तम्हा तेसु पवत्तह, कज्जेसु य उज्जमं पयत्तेण । सम्मत्तंमि चरिते, नाणंमि य मा पमाएह ॥ ११५ ॥..............
पूर्वाचार्य रचित 'सिरिचंदावेज्झय पइएणयं
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