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श्रीउत्तराध्ययनसूत्र-तृतीयाध्ययनम्
॥ अह तइ चाउरंगिज्जं अज्झयणं ॥
चत्तारि परमंगाणि दुल्लहाणीह जन्तुणो। माणुसत्तं मुई सद्धा, संजमम्मि य वीरियं ॥१॥ समावन्ना ण संसारे, नाणागोत्तासु जाइसु । कम्मा नाणाविहा कडु, पुढो विस्संभिया पया ॥२॥ एगया देवलोएसु, नरएसु वि एगया । एगया आसुरं काय, अहाकम्मेहिं गच्छई ॥३॥ एगया खत्तिओ होइ, तओ चण्डालवोकसो । तओकीडपयगो य, तओ कुन्थुपिवालिया ॥ ४ ॥ एवमावट्टजोणीसु, पाणिणो कम्मकिब्धिसा। न निविज्जन्ति संसारे, सबढेसु व खत्तिया ॥५॥ कम्मसंगेहिं सम्मूढा, दुक्खिया बहुवेयणा। अमाणुसासु जोणीसु, विणिहम्मन्ति पाणिणो ॥ ६ ॥ कम्माणं तु पहाणाए, आणुपुव्वी कयाइ उ । जीवा सोहिमणुप्पत्ता, आययंति मणुस्सयं ॥ ७॥ माणुस्सं विग्गहं लथु, सुई धम्मस्स दुल्लहा। जं सोचा पडिवज्जन्ति, तवं खतिमहिंसयं ॥ ८ ॥ आहच्च सवणं लर्बु, सद्धा परमदुल्लहा । सोच्चा नेआउयं मग्गं, बहवे परिभस्सई ॥९॥ सुइं च लडुं सद्धं च, वीरियं पुण दुल्लहं । बहवे रोयमाणावि, नो य णं पडिवज्जए ॥ १०। माणुसत्तंमि आयाओ, जो धम्मं सुच्च सद्दहे। तवस्सी वीरियं लध्धु, संखुडे निध्धुणे रयं ॥ ११ ॥ सोही उज्जूय भूयस्स, धम्मो सुद्धस्स चिट्ठई। निव्वाणं परमं जाइ, घयसित्तिव्य पावए ॥ १२ ॥ विगिच कम्मुणो हेउं, जसं संचिणु खंतिए । सरीरं पाढवं हिचा, उर्दू पक्कमए दिसं ॥ १३ ॥ विसालसेहिं सीलेहिं, जक्खा उत्तरउत्तरा । महासुक्का व दिपंता, मन्नंता अपुणञ्चयं ॥ १४ ॥ अप्पिया देवकामाणं, कामरूव विउविणो। उर्दू कप्पेसु चिट्ठति, पुव्वावाससया बहु ॥ १५॥ तत्थ ठिच्चा जहाठाणं, जक्खा आउक्खये चुया। उवेति माणुसं जोणिं, से दसंगेभिजायए ॥१६॥ खित्तं वत्थु हिरणं च, पसवो दासपोरुसं। चत्तारि कामखंधाणि । तत्थ से उववज्जइ ॥ १७ ॥ मित्तवं नाइवं होइ, उच्चागोए य वण्णवं । अप्पायंके महापन्ने, अभिजाए जसो बले ॥ १८ ।। भुच्चा माणुस्सए भोए, अप्पडिरूवे अहाउयं । पुव्वं विसुद्धसद्धम्मे, केवलं बोहिबुझिया ॥ १९ ॥ चउरंगं दुल्लहं नच्चा, संजमं पडिवजिया। तवसा धुयकम्मं से, सिद्धे हवइ सासए ॥ २० ॥
त्ति बेमि ।। इअ तृतीयं परिज्झयणं समत्तं ।।
॥ अह चतुर्थं असंखयं अज्झयणं ॥ असंखयं जीविय मा पमायए, जरोवणीयस्स हु नत्थि ताणं । एवं वियाणाहि जणे पमत्ते कन्नु विहिंसा अजिया गिहिति ॥ १ ॥ जे पावकम्मेहिं धणं मणूसा, समाययंती अमइं गहाय । पहाय ते पासपयट्ठिए नरे, वेराणुबद्धा नरयं उविंति ।। २ ॥ तेणे जहा संधिमुहे गहीए, सकम्मुणा किच्चइ पावकारी । एवं पया पेच इहं च लोए, कडाण कम्माण न मुक्खु अस्थि ॥ ३ ॥