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श्रीउत्तराध्ययनसूत्र-एगविसमाध्ययनम्
(३७)
पहाय रागं च तहेव दोसं, मोहं च भिक्खू सततं वियक्खणो। मेरु व्व वाएण अकम्पमाणो, परीसहे आयगुत्ते सहेजा ॥ १९ ॥ अणुन्नए नावणए महेसी, न यावि पुयं गरहं च संजए। स उज्जभावं पडिवज, संजए, निव्वाणमग्गं विरए उवेइ ॥ २०॥ अरइरइसहे पहीणसंथवे, विरए आयहिए पहाणबं । परमट्ठपरहिं चिट्टई, छिन्नसोए अममे अकिंचणे ॥ २१ ॥ विवित्तलयणाइ भएन ताई, निरोवलेवाइ असंथडाई । इसीहि चिण्णाइ महायसेहिं, काएण फासेज परीसहाई ॥ २२ ॥ सन्नाणनाणोवगए महेसी, अणुत्तरं चरिउं धम्मसंचयं । अणुत्तरे नाणधरे जसंसी, ओभासई सूरिए वन्तलिक्खे ॥ २३ ॥ दुविहं खवेऊण य पुण्णपावं, निरंगणे सव्यओ विप्पमुक्के । तरित्ता समुदं व महाभवोधं, समुद्दपाले अपुणागमं गए ॥ २४ ॥
त्ति बेमि ॥ इअ समुद्दपालीयं समत्तं ॥
॥ अह रइनेमिजं बावीसइमं अज्झयणं ॥ सोरियपुरम्मि नयरे, आसि राया महिड्डिए । वसुदेवु त्ति नामेणं, रायलक्खणसंजुए ॥१॥ तस्स भन्जा दुवे आसी, रोहिणी देवई तहा । तासिं दोण्हं दुवे पुत्ता, इट्ठा रामकेसवा ॥२॥ सोरियपुरम्मि नयरे, आसि राया महिड्डिए । समुद्दविजए नामं, रायलक्खणसंजुए ॥ ३ ॥ तस्स भज्जा सिवा नाम, तीसे पुत्तो महायसो। भगवं अरिट्टनेमि त्ति, लोगनाहे दमीसरे ॥ ४ ॥ सो ऽरिट्टनेमिनामो उ, लक्खणस्सरसंजुओ। अट्ठसहस्सलक्खणधरो, गोयमो कालगच्छवी ॥५॥ 'बजरिसहसंघयणो, समचउरंसो झसोयरो। तस्स रायमईकन्नं, भजं जायइ केसवो ॥६॥ अह सा रायवरकन्ना, सुसीला चारुपेहणी । सबलक्खणसंपन्ना, विज्जुसोयामणिप्षभा ॥ ७॥ अहाह जणओ तीसे, वासुदेवं महिड्डियं । इहागच्छउकुमारो, जा से कन्नं ददामि हं ॥ ८॥ सबोसहीहिं एहविओ, कयकोउयमंगलो। दिवजुयलपरिहिओ, आभरणेहिं विभूसिओ ॥९॥ मत्तं च गन्धहत्थि, वासुदेवस्स जेट्टगं । आरूढो सोहए अहियं, सिरे चूडामणि जहा ॥ १०॥ अह ऊसिएण छत्तेण, चामराहि य सोहिए। दसारचक्केण य सो, सबओ परिवारिओ ॥ ११॥ चउरंगिणीए सेणाए, रइयाए जहकमं । तुरियाण सनिनाएण, दिव्वेण गगणं फुसे ॥ १२॥ एयारिसाए इड्डीए, जुत्तीए उत्तमाइ य । नियगाओ भवणाओ, निजाओ वहिपुंगवो ॥ १३ ॥ अह सो तत्थ निजन्तो, दिस्स पाणे भयदुए । वाडेहिं पंजरेहिं च, सन्निरुद्ध सुदुक्खिए ॥ १४ ॥ जीवियन्तं तु सम्पत्ते, मंसट्ठा भक्खियवए । पासेत्ता से महापन्ने, सारहिं इणमब्बवी ॥ १५ ॥ कस्स अट्ठा इमे पाणा, एए सवे सुहेसिणो । वाडेहिं पंजरेहिं च, सन्निरुद्धा य अच्छहिं ॥ १६ ॥ अह सारही तओ भणइ, एए भद्दा उ पाणिणो। तुज्झं विवाहकजम्मि, भोयावेउं बहुं जणं ॥ १७ ॥