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श्रीउत्तराध्ययनस्वत्र- सप्तमाध्ययनम्
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ओजिए सई होइ, दुविहं दोग्गई गए । दुल्लहा तस्स उम्मग्गा, अद्धाए सुइरादवि ॥ एवं जियं सपेहाए, तुल्लिया बालं च पण्डियं । मूलियं ते पवेसन्ति, माणुसिं जोणिमेन्ति जे मायाहिं सिक्खाहिं, जे नरा गिहिसुब्वया । उवेन्ति माणुसं जोणिं, कम्मसच्चा हु पाणिणो ॥ जेसिं तु विउला सिक्खा, मूलियं ते अइच्छिया । सीलवन्ता सवीसेसा, अदीणा जन्ति देवयं एवमद्दणवं भिक्खु, आगारिं च वियाणिया । कहण्णु जिचमेलिक्खं, जिच्चमाणे न संविदे ॥ जहा कुसग्गे उदगं, समुद्देण समं मिणे । एवं माणुस्सगा कामा, देवकामाण अंतिए || कुसग्गमेत्ता इमे कामा, सन्निरुद्धम्मि आउए । कस्स हेउं पुराकाउं, जोगक्खेमं न संविदे ॥ इह कामाणियट्ठस्स, अत्तट्ठे अवरज्झई । सोच्दा नेयाउयं मग्गं, जं भुज्जो परिभस्सई || इह कामणिट्ठस्स, अट्ठे नावरज्झई । पूइदेहनिरोहेणं, भवे देवि त्ति मे सुयं ॥ इड्ढी जुई जस्सो वण्णो, आउं सुहमणुत्तरं । भुज्जो जत्थ मणुस्सेसु, तत्थ से उववज्जई बालस्स पस्स बालतं, अहम्मं पडिवज्जिया । चिचा धम्मं अहम्मिट्ठे, नरए उववज्जई धीरस्स पस्स धीरतं सच्चधमाणुवत्तिणो । चिचा अधम्मं धम्मिट्ठे, देवेसु उववज्जई
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तुलियाण बालभावं, अबालं चेव पंडिए । चइऊण बालभावं, अबालं त्ति बेमि || इअ एलय - ज्झयणं समत्तं ॥ ७ ॥
सेवई मुणि
॥ अह काविलियं अट्ठमं अज्झयणं ॥ अधुवे असासम्म, संसारम्मि दुक्खपउराए । किं नाम होज्जतं कम्मयं जेणाहं दोरगई न गच्छेजा ॥ १ ॥ विजहित्तु पुब्बसजोयं, न सिहं कहिंचि कुव्वेज्जा । असिणेहसिणेहकरेहिं, दोसपओसेहि मुच्चए भिक्खू || २ || तो नाणदंसणसमग्गो, हियनिस्सेसाय सव्वजीवाणं ।
सिं विमोक्खणट्टाए, भासई मुणिवरो विगयमोहो || ३ || सव्वं गंथ कलहं च, विप्पजहे तहाविहं भिक्खू | सव्वेसु कामजासु, पासमाणो न लिप्पई ताई ॥ ४ ॥ भोगामिसदोस विसन्ने, हियनिस्सेय सबुद्धिवोच्चत्थे | बाले य मन्दिर मूढे, बज्झई मच्छिया व खेलम्म ॥ ५ ॥ दुष्परिचया इमे कामा, नो सुजहा अधीरपुरी से हिं । अह सन्ति सुव्वा साहू, जे तरन्ति अतरं वणिया वा ॥ ६ ॥ समणामु एगे वयमाणा, पाणवहं मिया अयाणन्ता | मन्दा निरयं गच्छन्ति, बाला पावियाहिं दिट्ठीहिं ॥ ७ ॥ न हु पाणवहं अणुजाणे, मुच्चेञ्ज कयाइ सव्वदुक्खाणं । एवारिएहिं अक्खायं, जेहिं इमो साधुधम्मो पन्नत्तो ॥ ८ ॥
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