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श्री आचारांगसूत्रम्
पुनि-पुनि भोगे विषय रस, होता कब सन्तोष। पर जीवों के साथ में, अधिक बढ़ाता रोष।।६।। नाशवान काया अरे, मूढ़ जीव कब जान। वृद्धि लिये हिंसा करे, खान-पान परिधान ।।७।। रहना चाहे देव ज्यों, आठों प्रहर जवान। विषयासक्त मनुज अरे, करता आर्तध्यान।।८।। क्यों कर दुख चिन्तन करे, विषय-भोग परिणाम। बार-बार कहना यही, करो त्याग अविराम।।९।।
छठा उद्देशक
• दुरितकार्य निषेध. मूलसूत्रम्से तं संबुज्झमाणे आयाणीयं, समुट्ठाए तम्हा पावं कम्मं णेव कुज्जाण कारवेज्जा। पद्यमय भावानुवाद
दोष चिकित्सा में यही, जानें श्रमण सुजान। सावधान त्रय करण से, हिंसा में नादान।।१।। ग्रहण योग्य ही ग्रहण कर, सभी कर्म सावद्य। तीन विधा से त्याग हो, साधु न होता अज्ञ।।२।।
•ज्ञानी परीक्षा. मूलसूत्रम्सिया तत्थ एगयरं विप्परामुसइ छसु अण्णयरम्म कप्पइ। सुहट्ठी लालप्पमाणे, सएण दुक्खेण मूढे विप्परियासमुवेइ। सएण विप्पमाएण, पुढो वयं पकुव्वइ। जसिमे पाणा पव्वहिया। पडिलेहाए णो णिकरणयाए, एस परिण्णा पवुच्चइ, कम्मोवसंती।