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- श्री आचारांगसूत्रम् -.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-..
भोगों का संचय किया, कर उद्यम दिन-रैन। भोग न पाता रोग में, होइ शोक बेचैन।।७।।
• आशा-निराशा. मूलसूत्रम्आसं च छंदं च विगिंच धीरे, तुमं चेव तं सल्लमाहट्ट, जेण सिया तेण णो सिया, इणमेव णाव बुज्झंति जे जणा मोहपाउडा थीभि लोए पव्वहिए, ते भो ! वयंति एयाइं आययणाई, से दुक्खाए मोहाए माराए णरगाए णरगतिरिक्खाए, सययं मूढे धम्म णाभिजाणाइ, उदाहु वीरे, अप्पमाओ महामोहे, अलं कुसलस्स पमाएणं, संतिमरणं संपेहाए, भेउरधम्म संपेहाए, णालं पास, अलं ते एएहिं। पद्यमय भावानुवाद
धीर वीर मानव तुझे, कहते आगमकार । आशा इच्छा भोग की, कर देना परिहार।।१।। आशारूपी शल्य को, दिया जिगर में डाल। जिससे दुख तू भोगकर, हो जाता बेहाल ।।२।। प्राप्त किया सुख भोग तू, कर-कर युक्ति अनेक। किन्तु कभी मिलती नहीं, सुख की कोई टेक।।३।। सुखाभास को सुख समझ, भटक रहे जो लोग। नित-नूतन है आत्मसुख, बने न उसका योग ।।४।। भटक रहा है कष्ट में, यह सारा संसार । सुख की आशा में रहे, देव मनुज अवतार ।।५।। मोहजयी जग जीव जो, उनका कहना एक। ये साधन उपभोग हित, वनितादिक सुख देख।।६।। तिया बिना इस देह को, सौख्य प्राप्त कब होय। यह तो नर की भ्रान्ति है, भ्रान्ति मोह से होय।।७।।