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________________ *११८ * श्री आचारांगसूत्रम् -. -. - . -. -. -. -. - . - . -. - . होइ ज्ञान से भ्रष्ट जो, पोषक शिथिलाचार। करते दर्शननाश वे, कहते आगमकार।।३।। पाँचवाँ उद्देशक • पण्डित मरण. मूलसूत्रम्कायस्स वियाघाए एस संगामसीसे वियाहिए से हु पारंगमे मुणी, अविहम्ममाणे फलगावयट्ठी कालोवणीए कंखिज्ज कालं जाव सरीरभेउ। पद्यमय भावानुवाद युद्ध भूमि के मध्य में, लाखों सैन्य विलोक। शूरवीर तन मोह में, करने लगता शोक।।१।। मगर वीर दृढ़ भाव से, भरता है हुंकार। लाखों सेना गीध सम, करे पलायन द्वार।।२।। फिर भी कुछ मुनि मृत्यु भय, कायर हो घबराय। आर्तध्यान करने लगें, कायघात दुखदाय।।३।। धैर्यवान यदि श्रमण हो, करता मन मजबूत। डरता कब वह काल से, सच्चा वीर सपूत।।४।। करे प्रतीक्षा मृत्यु की, रखकर समता भाव। जड़-चेतन की समझ से, लगे किनारे नाव।।५।। स्थिर रहता काष्ठ सम, देह भेद हो जाय। करे प्राप्त पंडित-मरण, उत्तम गति वह पाय।।६।।
SR No.022583
Book TitleAcharang Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaysushilsuri, Jinottamsuri
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year2000
Total Pages194
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size41 MB
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