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छठा अध्ययन : धुत
पद्यमय भावानुवाद
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आत्मगुप्त इस लोक में, ले दीक्षा पर्याय । नहिं लौटे गृहवास में, भाग्यवन्त कहलाय ।। १ ।। भाव नग्न मुनिवर सदा, आकिंचन व्यवहार | है वह जिनवर धर्म का, सच्चा पालनहार । । २ । । मुनि जीवन उत्कृष्ट है, कर्म - नाश उद्योग । अहो ! अकेले विचरकर, श्रेष्ठ साधना योग । । ३ । । मेधावी मुनिवर हरे, अशन दोष तत्काल । शुचि संयम आराधना, करे विजय यम काल ।।४।। सुगन्ध या कि दुर्गन्ध हो, निन्दा - मान समान । सिंह शूर उपसर्ग हो, फिर भी समतावान । । ५ । ।
तीसरा उद्देशक
प्रज्ञाशील श्रमण
मूलसूत्रम् -
आगयपण्णाणाणं किसा बाहा भवंति पयणुए य मंससोणिए विस्सेजिं कट्टु परिण्णाय, एस तिण्णे मुत्ते विरए पियाहिए त्ति बेमि ।
पद्यमय भावानुवाद
अहो सन्त जग जानते, सम्यक् रूप निहार । नहिं ममता है वस्तु पर, समता सभी प्रकार । । १ । । मुनिवर प्रज्ञाशील जो, होते तप तल्लीन । तप से करते देह कृश, कभी न होते पीन । । २ । । जो-जो कारण कर्म के, करें नष्ट अत्यन्त । जिन आज्ञा पालन करें, वे जीवन पर्यन्त । । ३ । ।