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श्री आचारांगसूत्रम्
पद्यमय भावानुवाद
आगम का उपदेश यह, देता बहु आह्लाद । लोकसंधि को ज्ञात कर, करना नहीं प्रमाद ।।१।। अपने आत्म समान ही, पर सुख-दुख कर ज्ञात। अतः किसी को मार मत, नहीं करो पर घात ।।२।। आशंका से पापकर्म, जो नहीं करता कोय। वह साधक मत मानिए, मुख्य भाव ही होय।।३।। भय-लज्जा-पाखंड से. मनि हिंसा से दर।। मात्र दिखावा जान तू, नहिं मुनि संयम शूर।।४।।
• चाह निषेध. मूलसूत्रम्समयं तत्थुवेहाए अप्पाणं विप्पसायए। अणण्णपरमं णाणी, णो पमाए कयाइवि। आयगुत्ते सयावीरे जायामायाइ जावए। विरागं रुवेसुंगच्छिज्जा महया खुड्डएहिवा, आगइं गई परिण्णाय दोहिं वि अंतेहिं अदिस्समाणे हिं सेण छिज्जइ ण भिज्जइ ण डज्झइ ण हम्मइ कंचणं सव्वलोए। पद्यमय भावानुवाद
सब द्वन्द्वों में सम रहे, रहे स्वयं में तुष्ट । हर्ष-शोक में भाव सम, को सज्जन को दुष्ट।।१।। शिव सुख से बढ़कर अरे! नहीं वस्तु जग अन्य।
आत्मगुप्त अरु संयमी, मुनि ‘सुशील' वह धन्य।।२।। इन्द्रिय अरु मन को सदा, शीघ्र पाप से रोक। कर ले रक्षा आत्म की, अहो! वीर बेरोक ।।३।। इन्द्रियगत जो वस्तु है, उनसे होइ विराग। राग-द्वेष का अन्त कर, कर रूपों का त्याग।।४।।