________________
-: प्रशस्य प्रशस्ति :नमोऽस्तु तस्मै श्री जिनागमाय
उपन्नेइ वा विगमेइ वा धुवेइ वा वैशाख सु.१० ना ढळती संध्याए चरम तीर्थपति श्री महावीरस्वामिने केवलज्ञान अने केवलदर्शन नी प्राप्ति थई । तेम छतां, वै.सु.११ ना दिवसे गौतमादि अग्यार गणधरोने प्रभुए त्रिपदी अर्पण करी. ,
उत्पन्न थq, विनाश थवो, निश्चल (ध्रुव) रहे, ।
चराचर विश्वना पौद्गलिकभावोने प्रभुए तद्दन खुल्लाकरी दीधां । जेमांथी अग्यार अंग अने दृष्टिवाद रूप द्वादशांगीनी रचना थई, अने कालान्तरे आजे आपनी पासे आवी।
पू. याकिनी महत्तरा सुनु हरीभद्रसूरिजी म.सा. कहे छे. हा अणाहा कहं हूंता जइ न हुति जिनागमो ? हे परम प्रभु ! आजे मने जो तारा आगम ना मळ्या होत तो म्हारुं शुं थात ? हुं आजे क्या होत ? म्हारां आत्मानु शुं थात ? -
ज्ञानभास्कर पूज्यपादश्री ने एवं ते शुंलाग्युं के तेओ पोताना ग्रन्थ मां आ उद्गार प्रभु समी प्रगट करे ? अथवा तो आवी कृतज्ञता रजु करे ?
हा ! छे कांइक एवं ज आ आगमो मां जे जिनेन्द्रो आपणे आप्युं छे
प्रथम ज्ञानदृष्टी :- जे वस्तु जेवी छे तेने तेवी रीते समजावी के जेनाथी आत्मानु केम करीने संरक्षण थाय, वळी आत्मानी स्थितीनी ओळखाण अने जीवादि सृष्टी नी समज तमने एम थतुं हशे आम केम ? परन्तु .. आ ज आचारांग सूत्रना प्रथम अध्ययनमां पृथ्वीकायादि षट्कायनी प्रभुए प्ररूपणा करी छे. जे ज्ञानदृष्टी छे.
बीजुं हस्ताक्षर :- हस्ताक्षर अमानवनी पहचाननुं स्मृति चिह्न अथवा
फ्री आचारांग सूत्रम्
(००५)