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मुनि सचित्त पृथ्वी पर, सचित्त रज मुक्त आसन पर न बैठें, पर अचित्त पृथ्वी आसन आदि हो तो आवश्यकता होने पर मालिक की अनुज्ञा लेकर, प्रमार्जन करके बैठें | ५ |
" अप्काय रक्षा"
सीओदगं न सेविज्जा, सिलावुट्टं हिमाणि उसिणोदगं तत्त- कासुअं, पडिगाहिज्ज
मुनि, सचित्त जल, ओले, बरसात का जल, हिम, बरफ के पानी का उपयोग न करें, पर उष्ण तीन बार उबाला हुआ, अचित्त हो उसका उपयोग करें । ६ ।
उदउल्लं अप्पणो कार्य, नेव पुंछे न समुप्पेह तहाभूअं, नो சு संघट्टए
अ
संजए ॥ ६ ॥
संलिहे ।
मुणी ॥ ७H
सचित्त जल से आद्र स्व शरीर को न पोंछे और हाथ आदि से न लुंछे। वैसे शरीर का किंचित् स्पर्श भी न करें । अर्थात् हाथ भी न लगावें वैसा ही रहने दें । ७ ।
भीगे शरीर सहित उपाश्रय में आकर एक ओर खड़ा हो जाय कुदरतन शरीर सुख जाने के बाद दूसरा कार्य करें। भीगे वस्त्र एक ओर रख दे, सुख जाने के बाद उसे हाथ लगावें ।
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"अनिकाय की जयणा'
इंगालं
अगणिं अच्चि, न उंजिज्जा न घटिज्जा, नो णं निव्वावए
अलायं वा
पत्तेण,
साहाए
तालिअंटेण विहयणेण 7 वीइज्ज अप्पणो कार्य, बाहिरं वा वि
तरुक्ख न छिंदिज्जा, फलं मूलं च आमगं विविहं बीअं मणसा वि न
श्री दशवैकालिक सूत्रम् / ९३
सजोइयं । .
बिना ज्वाला के, अंगारे, अम्मि, लोहे के तपे हुए गोले में रही हुई अर्चि, ज्वालायुक्त अग्नि, अलात, जलती लकड़ी आदि को न प्रज्वलित करें, न स्पर्श करें, न बुझायें। किसी प्रकार से अन काय का उपयोग न करें। (तीन करण तीन योग से) । ८ ।
'वाउकाय की रक्षा"
मुणि ॥ ८ ॥
वा।
पुग्गलं ॥ ९॥
गर्मी के कारण मुनि वजन ताड़पत्र के पंखे से, कमल आदि के पत्तों से, वृक्ष की शाखा से, मोरपछी से स्व शरीर को हवा न करें, बाहर के अन्य पुद्गल को, चाय, दूध, पानी को ठंडा बनाने • हेतु हवा न करें । ९ ।
"वनस्पतिकाय की रक्षा"
कस्सई ।
पत्थर ॥ १० ॥