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________________ अई अंमि अ कालंमि, पच्चुप्पन्नमणागए। जत्थ संका भवे तं तु, एवमेअं ति नो वए ॥ ९ ॥ असत्य होते हुए सत्य वस्तु के स्वरुप को प्राप्त पदार्थ के विषय में बोलने से पाप कर्म का बंध होता है तो हम जाएँगे, "कहेंगे" हमारा वह कार्य हो जाएगा, मैं यह कार्य करूंगा या यह हमारा कार्य करेगा इत्यादि भविष्यकाल संबंधी भाषा उसी प्रकार वर्तमान एवं भूतकाल संबंधी भाषा बुद्धिमान साधु को नहीं बोलना चाहिये। क्योंकि कहे अनुसार कार्य * हुआ तो असत्य के दोष के साथ जन समुदाय में लघुता आदि होती है। अतीत, वर्तमान एवं भविष्य काल संबंधी जिस वस्तु के स्वरुप को, जिस कार्य के स्वरुप को सम्यक् प्रकार से न जाना है उसके संबंध में यह ऐसा ही है, यह ऐसा ही था इस प्रकार न बोले । ६ से ८ | अतीत, भविष्य, एवं वर्तमान काल संबंधी जहाँ शंका है उसके विषय में ऐसा ही है ऐसा न कहें । ९ । "तीनों काल संबंधी भाषा का प्रयोग " अईअंमि अ कालंमि, पच्चुप्पण्णमणागए। निस्संकिअं भवे जंतु, एवमेअं तु निद्दिसे ।। १० ।। भूत, भविष्य एवं वर्तमान काल में जिस पदार्थ के, कार्य के विषय में नि:शंक हो और वह निष्पाप हो तो यह इस प्रकार है, ऐसा साधु कहे। " परुष एवं अतीव भूतोपघाती भाषा का त्याग" गुरु तहेव फरुसा भासा, भूओवघाइणी । सच्चावि सा न वत्तव्वा, जओ पावस्स आगमो ॥। ११ ॥ और परुष (कठोर) भावस्नेह रहित एवं जिससे प्राणीयों का उपघात विशेष हो ऐसी पापोत्पादक भाषा का अगर वह सत्य है तो भी न बोलें । ११ । " प्रयोजनवश भी ऐसे न बुलावें" वा । तहेव काणं काणत्ति, पंडगं पंडगत्ति वाहिअं वा वि रोगत्ति, तेणं चोरत्ति नो वए ॥ १२ ॥ एए उन्ने अट्टेणं, परो जेणुवहम्मइ । आयार भाव दोसन्नू, न तं भासिज्ज पन्नवं ॥ १३ ॥ तहेव होले गोलित्ति, साणे वा वसुलित्ति अ। दुमए दुहए वा वि, नेवं भासिज्ज पन्नवं ॥ १४ ॥ श्री दशवैकालिक सूत्रम् / ८३
SR No.022576
Book TitleDashvaikalaik Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages140
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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