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तालिअंटेण पत्तेण, साहाविहुअणेण वा। न ते वीइउमिच्छंति, वेआवेऊण वा परं॥३८॥ जं पि वत्थं व पायं वा, कंबलं पायपुंछणं। न ते वाय मुईरंति, जयं परिहरंति अ॥३९॥ तम्हा एअं विआणित्ता, दोसं दुग्गइ वड्ढणं।
वाउकाय समारंभं, जावजीवाइं वजऐ॥॥४०॥ तीर्थंकर भगवंत वाउकाय के आरंभ को अग्नि के आरंभ जैसा मानते हैं अत: अधिक पापार्जन करवाने वाले वायुकाय के आरंभ का सेवन नहीं करते।
ताड़ के पंखे से, पत्ते को, शाखा को, हिलाकर आदि किसी भी प्रकार से मुनि हवा नहीं लेते। दूसरे को हवा करने हेतु नहीं कहते एवं करने वाले की अनुमोदना नहीं करते।
वस्त्र, पात्र, कबल, रजोहरण पादपोंछन आदि धर्मोपकरण के द्वारा मुनि वायु की उदीरणा नहीं करते पर जयणापूर्वक वस्त्रपानादि का परिभोग करते हैं।
दुर्गतिवर्द्धक दोषों को जानकर मुनि भगवंत वाउकाय के समारंभ का त्याग करते हैं। यह दशम संयम स्थान है। ३७ से ४०। एकादशम संयम स्थान वनस्पतिकाय की जयणा"
वणस्सइं न हिंसंति, मणसा वयसा कायसा। तिविहेण करणजोएणं, संजया सुसमाहिआ॥४१॥ वणस्सई विहिंसंतो, हिंसई अ तयस्सिए। तसे अ विविहे पाणे, चक्खुसे अ अचक्खुसे॥४२॥ तम्हा एअं विआणित्ता, दोसं दुग्गइवड्ढणं।
वणस्सइ समारंभ, जावजीवाई वजए ॥४३॥ सुसमाहित श्रमण मन, वचन, काया रूप तीन योग कृत, कारित, अनुमोदित रूप तीन करण से वनस्पतिकाय की हिंसा नहीं करते। वनस्पति का विराधक दृश्य अदृश्य त्रस एवं दूसरे प्राणियों की हिंसा करता है। अत: दुर्गतिवर्द्धक दोषों को जानकर जीवन पर्यंत वनस्पतिकाय के आरंभ का मुनि त्याग करे यह एकादशम संयम स्थान है। ४१से ४३॥ द्वादशम् संयम स्थान त्रसकाय की जयणा"
तसकायं न हिंसंति, मणसा वयसा कायसा। तिविहेण करण जोएणं, संजया सुसमाहिआ॥४४॥
श्री दशवैकालिक सूत्रम् /७५