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तिलपापडी, नीमवृक्ष के सचित्त फल आदि। चावल का आटा (तुरंत का), कच्चा पानी, तीन उकाले
आये बिना का पानी, तिल का आटा, सरसव का सामान्य कूटा हुआ खोल। कच्चे कोठे के फल, बीजोरू, मूला के पत्ते, मूला के कंद, बोर का चूर्ण, जवादि का आटा, बहेड़ा का फल, चारोली और अचित्त हुए बिना कोई भी पदार्थ, दाता वहोराये तो मुनि कह दे कि ऐसा आहार हमें नही कल्पता एवं मुनि मन से ऐसा विचार भी न करें कि मैं ऐसा पदार्थ ग्रहण करूं॥१८ से २४॥ "सभी सुकुलों में गोचरी जाना"
समुआणं चरे भिक्खु, कुलमुच्चावयं सया।
नीयं कुलमइक्कम्म, ऊसदं नाभिधारए॥२५॥ निर्दोष आहारार्थ हेतु आवश्यकतानुसार सदा समृद्धिवाले, मध्यम एवं साधारण घरों में जो निंदनीय न हो ऐसे घरों में जाना। पर मार्ग में गरीब साधारण व्यक्ति का घर छोड़कर धनाढय समृद्धिवाले घर में ही नहीं जाना। "अदीन वृत्ति"
अदीणो वित्तिमेसिज्जा, न विसीइज्ज पंडिए। अमुच्छिओ भोअणंमि, . मायण्णे एसणारए॥२६॥ बहं पर घरे अस्थि, . विविह खाइमसाइमं। न तत्थ पंडि ओकुप्पे, इच्छादिज परो न वा॥२७॥ सयणासणवत्थं वा, भत्तं पाणं व संजए।
अदितस्स . न कुप्पिजा, पच्चक्खेविअ दीसओ॥२८॥ आहार में अमूर्च्छित मुनि, स्वयं के आहार के परिमाण का ज्ञाता मात्रज्ञ, और निर्दोष एषणा में निमग्न ऐसा मात्रज्ञ ज्ञानी मुनि आहार पानी न मिलने पर अदीन वृत्ति से गवेषणा करें। गृहस्थ के घर पर अनेक प्रकार की खाद्य-स्वाद्य सामग्री रहती है, पर वह न वहोराये तो ज्ञानी साधु उस पर क्रोधित न हो, वह इच्छा पूर्वक वहोराओ तो वहोरना, नहीं तो नहीं। गृहस्थ के घर में प्रत्यक्ष दिखाई देते शयन, आसन, वस्त्र एवं आहार पानी जो गृहस्थ न दे तो उस पर साधु क्रोध न करें ॥२६।२७।२८॥ "वंदनकर्ता से याचना का निषेध"
इथिअं पुरिसं वा वि, डहरं वा महल्लगं।
वंदमाणं न जाइजा, नो अणं फरूसं वए॥२९॥ __ स्त्री, पुरूष , युवान या वृद्ध हो उस वंदनकों के पास साधु किसी पदार्थ की याचना न करें। याचना करने से उसके भाव टूट जाते हैं। कारण होने पर योग्य व्यक्ति से याचना करने पर भी पदार्थ के अभाव में न वहोराये तो उसे कठोर वचन न कहे। पदार्थ न वहोराने से तेरा वंदन निष्फल है, कायकष्ट है, तुझे कोई लाभ नहीं ऐसा न कहे। "वंदन न करे तो क्रोध न करें -
जे न वंदे न से कुप्पे, बंदिओ न समुक्कसे। एवमन्नेस माणस्स, . सामण्णमणुचिट्ठइ॥३०॥
श्री दशवैकालिक सूत्रम् / ६३