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न सम्म मालोइ हुज्जा, पुदि पच्छा स जं कडं। पुणो पडिक्कमे तस्स, वोसट्ठो चिंतए इमं॥११॥ अहो जिणेहिं असावज्जा, वित्ती साहण देसिआ। मुक्खसाहणहेउस्स, साहुदेहस्स .धारणा॥१२॥ णमुक्कारेण पारित्ता, करिता जिणसंथवं।
सज्झाय पट्टवित्ताणं, वीसमेज्ज खणं मुणी॥१३॥ उपाश्रय में आने के बाद मुनि आहार करने की इच्छावाला हो तब लाया हुआ निर्दोष आहार करने के स्थान का प्रमार्जन करे “इसके पूर्व निसीहि" नमोखमासमणाणं कहते हुए विनयपूर्वक उपाश्रय में प्रवेश करें। गुरू भगवंत के पास आकर इरियावही प्रतिक्रमण करे, कायोत्सर्ग में गोचरी जाते आते, आहार पानी लेने में क्रमश: जो अतिचार लगे हों उसे याद करें, सरलमतियुक्त, अव्यग्रचित युक्त, अव्याक्षिप्त चित्तयुक्त, जैसा जिस प्रकार से आहार पानी ग्रहण किया हो वैसा गुरू भगवंत से कहें, अनुपयोग से पूर्वकर्म, पश्चात् कर्म आदि की जो-जो आलोचना सम्यक् प्रकार से न हुई हो उस हेतु पुनश्च (गोअर चरिया के पाठ पूर्वक) आलोचना करें एवं काउस्सग्ग में चिंतन करें कि “अहो! श्री तीर्थंकर भगवंतों ने मोक्ष साधना के हेतु भूत और साधु के देह निर्वाहार्थ ऐसी निरवद्य वृत्ति बताई है" फिर नमो अरिहंताणं से कार्योत्सर्ग पार कर लोगस्स कहकर सज्झाय कर, मार्ग के श्रम निवारणार्थ विश्राम करें॥ ८७ से ९३॥
देह की स्वस्थता हेतु विश्राम करना यह अतीवोपयोगी नियम है। विश्राम करने से आहार संज्ञा की तृष्णा को अल्पावधि तक रोकना एवं श्रम दूर होने से पाचन तंत्र का व्यवस्थित रहना यह आत्मिक एवं भौतिक दोनों प्रकार से लाभदायक है। "निमंत्रण देना"
विसमंतो इमं चिंते, हियमढे लाभमट्ठिओ। जड़ मे अणुग्गहं कुज्जा, साह हुजामि तारिओ॥९४॥ साहवो तो चियत्तेणं, निमंतिज जहक्कम।
जइतत्थ केइ इच्छिजा, तेहिं सद्धिं तु भुंजए॥९५॥ विश्राम करते हुए विचार चिंतन करें कि इस आहार में से कोई मुनिभगवंत आहार ग्रहण कर मुझे अनुग्रहित करें तो मैं भवसागर से पार करवाया हुआ बर्नु अर्थात् यह अनुग्रह मुझे भवसागर पार करने में उपयोगी बनें। गुरू भगवंत की आज्ञा लेकर सभी साधुओं को निमंत्रण करें जो कोई उस में से ग्रहण करे तो उनको देने के बाद उनके साथ बैठ कर आहार करें॥९४।९५॥
श्री दशवैकालिक सूत्रम् / ५८