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जो आहार पानी निर्दोष हो तो, अन्नाआदि से लिप्त हाथ, चम्मच या अन्य बर्तन में लेकर दे तो ग्रहण करना। पूर्वकर्म एवं पश्चात्कर्म न लगे इस प्रकार आहार ग्रहण करना। .
दुहं तु भुंजमाणाणं, अगो तत्थ निमंतओ। दिज्जमाणं न इच्छिज्जा, छंदंसे पडिलेह ॥३७॥ दुण्हं तु भुंजमाणाणं, दोवितत्थ निमंतओ।
दिज्जमाणं पडिच्छिज्जा, जं तत्थेसणिअंभवे॥३८॥ ___ पदार्थ के दो मालिक में से एक निमंत्रण करे और दूसरे के नेत्र विकारादि से वहोराने के भाव दिखाई न दे तो न ले। दोनों के वहोराने के भाव हो और आहार निर्दोष हो तो ग्रहण करें।
- इन दो श्लोकों से यह स्पष्ट हो रहा है कि पदार्थ के मालिक भावपूर्वक वहोराने पर भी वह पदार्थ निर्दोष न हो तो ग्रहण नहीं करना चाहिये। केवल वहोराने वाले के भाव ही नहीं देखने हैं, पदार्थ की निर्दोषता भी देखना आवश्यक है।
गुठ्विणी ओ उवण्णत्थं विविहं पाण भोअणं। भुंजमाणं विवज्जिज्जा, भुत्तसेसं पडिच्छ॥३९॥ सिआ य समणट्ठाओ, गुम्विणी कालमासीणी। उट्ठि आ वा निसीइज्जा, निसन्ना वा पुणट्ठाओ॥४०॥ तं भवे भत्तपाणं तु संजयाण अकप्पिा
दितिअं पडिआइक्खे न मे कप्पड़ तारिसं॥४१॥ गर्भवती स्त्री के लिए विविध भोजन तैयार किये हुए हो वह आहार न ले पर उसके खाने के बाद अधिक हो तो ग्रहण कर सकता है॥३९॥
कभी पूर्ण मासवाली अर्थात नौंवे महिनेवाली गर्भवती स्त्री साधु को वहोराने के लिए खड़ी हो तो बैठ जाय या बैठी हो तो खड़ी हो जाय तो उसके हाथ से आहार लेना न कल्पे॥४०॥(परन्तु वह बैठी हो उसके पास आहार/पदार्थ हो और बैठी-बैठी वहोराये तो लेना कल्पे)
गर्भवती का भोजन एवं गर्भवती द्वारा दिये जाने वाले आहार के लिए साधु निषेध करे कि ऐसा आहार लेना हमें नहीं कल्पता॥४१॥
थणगं पिजेमाणी दारगं वा कुमारि। तं निक्खिवितुं रोअतं, आहरे पाणभोअणं॥४२॥ तं भवे भत्तपाणं तु संजयाण अकप्पि। दितिअं पडिआइक्खे, न मे कप्पइ तारिसं॥४३॥ जं भवे भत्तापाणं तु कप्याकम्पमि संकि। दिति पडिआइक्खे, न मे कप्पइ तारिसं॥४४॥ दगवारेण पिहि, नीसाओ पीढण वा। लोढेण वा वि लेवेण, सिलेसेण व केणइ॥४५॥ तं च उभिंदिउं दिजा समणट्ठाओ व दावओ। दितिअं पडिआइक्खे, न मे कप्पइ. तारिसं॥ ४६॥
श्री दशवैकालिक सूत्रम् / ५२