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जो साधु-साध्वी नाना प्रकार की तपस्याओं को करने में, निष्कपट शान्तिभाव से संयम क्रिया पालन करने में, बाईस परिषहों को जीतने में और जिनेश्वरों की आज्ञा के अनुसार चलने में कटिबध्द हैं उनको सदा शाश्वत सिध्द अवस्था मिलना सहज है। .....
पच्छा वि ते पयाया, खिप्पं गच्छंति अमरभवणाई।
जेसि पिओ तवो संजमो अ खंति अ बंभचेरं च॥२८॥ शब्दार्थ-जेसिं जिन पुरुषों के तवो बारह प्रकार का तप अ और संजमो सतरह प्रकार का संयम अ तथा खंति क्षमा च और बंभचेरं ब्रह्मचर्य पिओ प्रिय है ते वे पच्छा वि अन्तिम अवस्था में भी पयाया संयम-मार्ग में चलते हुए अमरभवणाई देवविमानों को खिप्पं जल्दी से गच्छंति पाते है।
आखिरी (वृध्द) अवस्था में भी जिन पुरुषों को तप, संयम, क्षमा और ब्रह्मचर्य प्रिय है, वे संयममार्ग में रहते हुए देवविमानों को अवश्य प्राप्त करते हैं। मतलब यह कि वृध्दावस्था में दीक्षा लें कर उसको अच्छी रीति से पालन करनेवाला पुरुष देवगति में जरुर जाता है।
इच्चेयं छज्जीवणियं, सम्मदिढि सया जए।
दुल्लहं लभित्तु सामणं, कम्मुणा न विराहिज्जासि॥२९॥त्ति बेमि
शब्दार्थ- सया निरन्तर जए जयणा रखते हुए सम्मद्दिट्टि सम्यग्दृष्टि पुरुष दुल्लहं कठिनता से मिलने वाले सामणं चारित्र को लभित्तु पा करके इच्चेयं इस प्रकार चौथे अध्ययन में कही गई छजीवणियं षट्कायिक जीवों की कम्मुणा मन, वचन, काय इन योग संबन्धी अशुभ क्रिया से न विराहिजासि विराधना नहीं करे ति ऐसा बेमि मैं अपनी बुध्दि से नहीं, किन्तु तीर्थंकर आदि के उपदेश से कहता हूं।
हमेशा जयणा से रहने वाले सम्यग्दृष्टि पुरुष अत्यन्त दुर्लभ चारित्र-रल को पाकर चौथे अध्ययन में बतलाई हुई षड्जीवनिकाय संबन्धी जयणा की मन, वचन, काय से विराधना नहीं करें।
आशय यह है कि- साधु अथवा साध्वी चौथे अध्ययन में कहे अनुसार पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय,वायुकाय, वनस्पतिकाय और त्रसकाय इन षड्जीवनिकाय की जयणा खुद रक्खे, दूसरों के पास जयणा रखावे और जयणा रखने वालों को मन-वचन-काय इन तीन योगों से अच्छा समझे, लेकिन षड्जीवनिकाय की किसी प्रकार से विराधना नहीं करें।
आचार्य श्रीशय्यंभवस्वामी फरमाते हैं कि हे मनक ! षड्जीवनिकाय का स्वरुप और उसकी जयणा रखने का उपदेश जैसा भगवान् श्रीमहावीरस्वामी ने सुधर्मास्वामी को और सुधर्मस्वामी ने अन्तिम केवली जम्बूस्वामी को कहा, उसी प्रकार मैं तुझको कहता हूं।
इति षड्जीवनिका नामकचतुर्थमध्ययनं समाप्तम्।
श्री दशवकालिक सूत्रम् /४२