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जिनेश्वर प्ररूपित आगमों के सुनने से कल्याणकारी और पापकारी मार्ग का ज्ञान होता है और दोनों मार्गों का ज्ञान होने के बाद जो मार्ग अच्छा मालूम पड़े उसको स्वीकार कर लेना चाहिये।
जो जीवे वि न याणे, अजीवे वि न याणइ। जीवाऽजीवे अयाणतो, कहं सो नाहीइ संजमं॥१२॥
शब्दार्थ-जो जो पुरूष जीवे वि एकेन्द्रिय आदि जीवों को भी न याणेइ नहीं जानता है अजीवे वि अजीव पदार्थों को भी न याणइ नहीं जानता है सो वह पुरूष जीवाऽजीवे जीव अजीव को अयाणंतो नहीं जानता हुआ संयमं सप्तदशविध संयम को कहं किस प्रकार नाहीइ जानेगा?
जो जीवे वि वियाणेइ, अजीवे वि वियाणइ।
जीवाऽजीवे वियाणंतो, सो हु नाहीइ संजमं॥१३॥ शब्दार्थ-जो जो पुरूष जीवे वि एकेन्द्रिय आदि जीवों को भी वियाणेड विशेषरूप से जानता है अजीवे वि अजीव पदार्थों को भी वियाणइ विशेष रूप से जानता है सो वह पुरूष जीवाऽजीवै जीव अजीव के स्वरूप को वियाणंतो अच्छी तरह से जानता हुआ संजमं सप्तदशविध संयम को हु निश्चय से नाहीइ जानेगा।
जो पुरूष जीव और अजीव द्रव्य के स्वरूप को नहीं जानता वह संयम के स्वरूप को भी किसी प्रकार से नहीं जान सकता और जो जीव तथा अजीव द्रव्य को अच्छी रीति से जानता है वही संयम के स्वरूप को जान सकता है। मतलब यह कि जीव अजीव द्रव्यों के रहस्य को समझने वाला पुरूष ही संयम की वास्तविकता को भले प्रकार समझ सकता
जया जीवमजीवे य, दोवि एए वियाणइ। तया गई बहुविहं, सव्वजीवाण जाणइ॥१४॥ जया गई बहुविहं, सव्वजीवाण जाणइ। तया पुणं च पावं च, बंधं मोक्खं च जाणइ॥१५॥
शब्दार्थ-जया जब जीवं जीव य और अजीवे अजीव एए इन दोवि दोनों को ही वियाणइ जानता है तया तब सव्वजीवाण समस्त जीवों की बहुविहं नाना प्रकार की गई गति को जाणइ जानता है।
जया जब सव्वजीवाण समस्तजीवों की बहुविहं नाना प्रकार की गई गति को
१. धर्मास्तिकाय-जो चलने में सहायक है, अधर्मास्तिकाय-जो स्थिर रहने में सहायक है, आकाशास्तिकाय-जो अवकाशदायक है, पुद्गलास्तिकाय-जो सडन पडन विध्वंसनयुक्त है, काल-जो नये को जूना व जूने को नया करने वाला है, ये पांच द्रव्य अजीव हैं।
श्री दशवैकालिक सूत्रम् / ३८