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तब हमें ही देना। इस प्रकार प्रतिज्ञा करवाने से ममत्व भाव की वृद्धि होती है। साधु ग्राम, नगर, कुल, देश आदि में ममत्व भाव न करें। दुःख के कारणभूत ममत्व भाव हैं।
" गृहस्थ परिचय का त्याग "
गिहिणो वेआ वडिअं न कुज्जा, अभिवायण - वंदण - पूअणं वा ।
असंकिलिट्ठेहिं समंवसिज्जा, मुणीचित्तरस्स जओ न हाणी ॥ ९ ॥ साधु गृहस्थ की वैयावच्च न करें। वचन से नमस्कार, काया से वंदन, प्रणाम और वस्त्रादि द्वारा पूजा न करें। ऐसा करने से गृहस्थों से परिचय बढ़ने से चारित्र मार्ग से भ्रष्ट हो जाता है। दोनों का इससे अकल्याण होता है। इसी कारण से चारित्र की हानि न हो ऐसे असंक्लिष्ट परिणामवाले साधुओं के साथ रहना ।”
"संग किसका "
नया लभेज्जा निउणं सहायं, गुणाहिअं वा गुणओ समं वा । इक्को वि पावाइं विवज्जयंतो, विहरिज्ज कामेसु असज्जमाणो ॥ १० ॥
स्वयं से ज्ञानादि गुणों में अधिक या स्व समान गुण युक्त मुनि के साथ या गुण हीन होने पर भी जात्यकंचन समान- विनीत- निपुण-स - सहायक साधु न मिले तो संहनन आदि व्यवस्थित हो तो पाप के कारणभूत असद् अनुष्ठानों का त्याग करके, कामादि में आसक्त न होकर अकेले विहार करें। पर, पासत्यादि पाप मित्रों के साथ में न रहें । १० ॥
"कहां कितना रहना ?"
संवच्छरं वा वि परं पमाणं, बीअं च वासं न तहिं वसिज्जा । सुत्तस्स मग्गेण चरिज्ज भिक्खू, सुत्तस्स अत्थो जह आणवेई ॥। ११ ॥
मुनि ने जिस स्थान पर चातुर्मास किया है और शेष काल में एक महिना जहां रहा हैं वहां दूसरा चातुर्मास एवं दूसरा मास कल्प न करें। दूसरे तीसरे चातुर्मास या मासकल्प के बाद वहां रहा जा सकता है । भिक्षु सूत्रोक्त मार्ग से विहार करें। सूत्र का अर्थ जिस प्रकार आज्ञा दे अर्थात् जिनाज्ञानुसार विहार, करें। गाढ कारण से कालमर्यादा से अधिक रहना पड़े तो भी स्थान बदलकर आज्ञा का पालन करें। कमरे का कोना बदलकर भी आज्ञा का पालन करें ॥ ११ ॥
"साधु का आलोचन"
जो
पुव्वरत्तावररत्तकाले,
संपिक्खए
अप्पग-मप्पगेणं ।
किं मे कडं किंच में किच्चसेस, किं सक्कणिज्जं न समायरामि ॥ १२ ॥
साधु रात्रि के प्रथम प्रहर में और अंतिम प्रहर में स्वात्मा से स्वात्मा का आलोचन करें, विचार
करें कि = मैने क्या-क्या किया ? मेरे करने योग्य कार्यों में से कौन से कार्य प्रमाद वश नहीं कर रहा हूँ ? इस प्रकार गहराई से सोचें विचारें फिर उस अनुसार शक्ति को छुपाये बिना आचरण करें । १२ ॥ "दोष मुक्ति का उपाय"
किं मे परो पासइ किं च अप्पा, किं वाहं खलिअं न विवज्जयामि । इच्चेव सम्मं अणुपासमाणो, अणागयं नो पडिबंध कुज्जा । १३ ॥
श्री दशवैकालिक सूत्रम् / १३१