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चारित्र से भ्रष्ट स्वच्छंद चित्त से भौतिक भोगों को भोगकर अज्ञ जनोचित प्रचुर असंयमाचरणकर आयु पूर्ण कर स्वभाव से ही असुंदर दुःखजनक अनिष्ट गति में जाता है। उसे बार-बार जन्म मरण करने पर भी बोधी/सम्यक्त्व की प्राप्ति सुलभ नहीं होती वह दुर्लभ बोधी होता है। उसको प्रवचन की विराधना करने के कारण दुर्लभ बोधीपना प्राप्त होता है। ..... "विशेष हित शिक्षा"
इमस्स ता नेरईअस्स जंतुणो, दहोवणीअस्स किलेसवत्तिणो। पलिओवमं झिज्झइ सागरोवमं, किमंग पुण मज्झाइमं मणोदुई॥१५॥ ..
हे जीव! नरकगति के नारकी जीव का दःख प्रचुर एवं एकांत क्लेश युक्त पल्योपम एवं सागरोपम का आयुष्य भी पूर्ण हो जाता है तो संयम में मानसिक दुःख मुझे कितने समय रहेगा कदाचित् शारीरिक दुःख उत्पन्न हुआ है तो वह भी कितने काल तक रहेगा? ऐसा विचार कर दीक्षा को छोड़ने का विचार न करें॥१५॥
न मे चिरं दुक्खमिणं भविस्सइ, असासया भोगपिवास जंतुणो।
न चे सरीरेण इमेणऽविस्सई, अविस्सई जीविअ पज्जवेण मे॥१६॥
चारित्रावस्था में मानसिक शारीरिक दुःख चिरस्थाई नहीं रहेगा, एवं जीवों की भोग पिपासा अशाश्वत है, कदाचित् इस जन्म में भोग पिपासा न जाय तो भी मरण मृत्यु के साथ तो अवश्य जायेगी अत: मुझे चारित्र छोड़ने का विचार छोड़ देना चाहिये।
- जस्सेवमप्या उ हविज्ज निच्छिओ, चइज्ज देहं न हु धम्मसासणं।
तं तारिसं नो पइलंति इंदिआ, उंवितवाया व सुदंसणं गिरिं॥१७॥ जिस साधु ने ऐसा दृढ विचार कर निश्चित किया है कि देह का त्याग कर देना पर जिनाज्ञा का त्याग न करना। उस आत्मा को इंद्रियो के लुभावने विषय विकार अंश मात्र भी संयम स्थान से चलित नहीं कर सकते। दृष्टांत के रूप में प्रलय काल का तुफानी पवन क्या मेरू पर्वत को कंपायमान कर सकता है? नहीं। वैसे निश्चित दृढ विचारवान् आत्मा को विषय विकार अंशमात्र चलित नहीं कर सकते॥१७॥ "उपसंहार" इन्वेव संपस्सिम बुद्धिमं नरो, आयं उवायं विविहं विआणिआ। कारण वाया अदु माणसेणं, तिगुत्ति गुत्तो जिणवयण-महिद्विजासि॥१८॥ति बेमि॥
__ यथायोग्य ज्ञानादि का लाभ एवं विनयादि विविध प्रकार के उपायों का बुद्धिमान् साधु को सम्यग् प्रकार से विचार कर तीन गुप्तिओं से गुप्त मन-वचन-काया से गुप्त होकर जिनवाणी का आश्रय लेना अर्थात् जिनाज्ञानुसार चारित्र का पालन करना॥१८॥
तीर्थंकरादि द्वारा कहा हुआ मैं कहता हूँ। .
श्री दशवैकालिक सूत्रम् / १२८ ....