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"श्री दशवकालिक अध्ययन की प्रथम चूलिका"
उपयोगी शब्दार्थ पव्वइणं प्रवर्जित, ओहाणुप्पेहिणा संयम का त्याग करने की इच्छावाला, रस्सि लगाम, पोय पोत, संपडिलेहिअव्वाइं विचार करने योग्य।१। लहुसगा असार, इत्तरिआ क्षणिक, भूजो बार-बार, सायबहुला मायाबहुल, अवट्ठाइ रहनेवाला, ओमजणपुरकारे नीच जन को भी मान सन्मान देना पड़े, पडिआयणं वमन पिना, अहरगइवासोवसंपया नीच गति में जाने रूप कर्म बंधन, सोवक्के से क्लेश रहित, कुसग्ग कुश के अग्रभाग पर, दुच्चित्राणं दुष्टकर्म, वेइत्ता भोगकर, झोसइत्ता जलाकर। आयइं भविष्यकाल, अवबुज्झइ जानता है।१। ओहाविओ भ्रष्ट होकर, छमं पृथ्वी पर।२। पूइमो पूजने योग्य।३। माणिमो मानने योग्य सिटिव्व, श्रीमंत जैसा कब्बडे गाँव में, छूढो गिरा हुआ।५। समइक्वंत जाने के बाद, गलं गल, लोह कांटे पर का मांस।६। कुतत्तीहिं दुष्ट चिंताओं से।७। परीकिनो खूचा हुआ मोह संताण संतओ कर्म प्रवाह से व्याप्त बना हुआ ।८। रयाणं रक्त प्रीति रखनेवाला।१०। अवेयं रहित जन्नग्गि यज्ञ की अग्नि दुविहिअंदुष्ट व्यापार करने वाला दादुढियं जहर युक्त दाढ से रहित सर्प।१२। दुनामधिजं निंदनीय नाम पिहुजणंमि नीच लोक में चुअस्स भ्रष्ट बने हुए को संभिन्नवित्तस्स चारित्र को खंडित करनेवाली।१३। पसज्झ चेअसा स्वच्छंद मन से कटु करके अणहिझिअं धारणा बिना की, अनिष्ट दुःखपूर्ण।१४। दुहोवणी अस्स दुःख द्वारा प्राप्त किलेसवत्तिणो एकांत क्लेशयुक्त।१५। अविस्सइ जावे जीविअ पजवेण आयुष्य के अंत से।१६। नो पइलंति चलित न कर सके उविंतवाया तुफानी पवन संपस्सिअ विचारकर अहिट्ठिजासि आश्रय करे।१८।।
श्री दशवकालिकसूत्र प्रथम चूलिका "रतिवाक्या" प्रवर्जित पतन से कैसे बचे।?।
इहखलु भो पव्वइ एणं उप्पन्न दुक्खेणं संजमे अरइ समावन-चित्तेणं ओहाणुप्पेहिणा अणोहाइएणं चेव हयरस्सि-गयंकुस-पोय-पडागाभूआई ईमाई अट्ठारस ठाणाई सम्मं संपडिलेहि अव्वाइं भवंति। ___ हे शिष्यों ! प्रवर्जित साधु शारीरिक या मानसिक दुःख उत्पन्न होने पर संयम पालन में उद्वेग अरति के कारण चित्त उद्विग्नता युक्त हो गया है। अत: संयम को छोड़ने की इच्छावाला बन गया है, पर संयम का त्याग नहीं किया है। उस प्रवर्जित मुनि को निम्न अठारह स्थानों को भलीभांति समझना चाहिये।
ये अठारह स्थान उन्मार्ग से सन्मार्ग में लाने हेतु उसी प्रकार उपयोगी है जिस प्रकार घोड़े के लिए लगाम, हाथी के लिए अंकुश, नौका के लिए ध्वजा/पताका आवश्यक है।
तं जहा- (१) ह. भो दुस्समाए दुष्पजीवी (१) लहुसगा इत्तरिआ गिहीणं कामभोगा (२) भुजो अ साइबहुला मणुस्सा (३) इमे अ मे दुक्खे न चिरकालोवट्ठाइ भविस्सइ (४) ओमजण पुरकारे (५) वंतस्स य पडिआयणं (६) अहरगइ वासोवसंपया (७) दुल्लहे खलु भो गिहीणं धम्मे गिहिवासमझे वसंताणं (८) आयं के से वहाय होइ (९) संकप्पे से वहाय होइ (१०) सोवक्केसे गिहवासे,निरुवक्कसे परिआए (११) बंधे गिहवासे, मुक्खे
श्री दशवैकालिक सूत्रम् / १२४