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"परिसह सहन"
जो सहइ हु गाम- कंटए, अक्कोस- पहार - तज्जणाओ या भय-भेरव-सह-सप्पहासे, सम सुह -दुक्ख -सहे य जे स भिक्खू॥११॥ पडिम पडिवज्जिया मसाणे, नो भीयए भय भेई दिअस्स। . विविह गुण तवो- रए य निच्चं, न सरीरं चाभिकंखइ जे स भिक्खू॥१२॥ असई . वोस्ट्ठ-चत्त-देहे, ' अकुढे वहए व लुसिएवा। पुढवि-समे मुणी हविजा, अनियाणे अकोउहल्ले जे स भिक्खू॥१३॥ अभिभूय कारण परीसहाई, समुद्धरे जाइ-पहाओ अप्पयं।। विईयत्तु जाइ-मरणं महब्भयं, तवे रए सामणिए जे स भिक्खू॥१४॥
जो मुनि इंद्रियों को दुःख का कारण होने से, लोह कंटक- सम आक्रोश, प्रहार तर्जना, ताड़नादि को सहन करता है, अत्यंत रौद्र, भयानक, अट्टहास्य आदि शब्द को, देवादि के उपसर्ग को/सुख - दुःख को समभावपूर्वक सहन करता है। वह (मुनि) भिक्षु है॥११॥
जो मुनि स्मशान में पडिमा/ प्रतिमा स्वीकार कर, रौद्र भय के हेतु भूत वैताल आदि के शब्द, रुपादि को देख कर, भयभीत नहीं होता और विविध प्रकार के मूलगुण और अनशनादि तप में आसक्त होकर शरीर पर भी ममत्व भाव नहीं रखता। वह भिक्षु है॥१२॥ ____जो मुनि राग द्वेष रहित, आभूषण, विभूषा रहित निरंतर देह का व्युत्सर्ग और त्याग करता है, वचन से आक्रोश से दंडादि से पीटे, खड्गादि से काटे तो भी पृथ्वी के समान सभी दुःख सहन करता है, संयम के भावी फल हेतु नियाणारहित, एवं कौतुहल रहित है। वह साधु है॥१३॥
जो मुनि काया से परिषह का पराजय कर, संसार मार्ग से स्वात्मा का समुध्दार करता है, संसार मार्ग के मूलकारण रुप महाभय को जानकर साधुत्व के योग्य, तपधर्म में प्रयत्न करता है, वह भिक्षु है॥१४॥ .. "विविध गुणों से संयुक्त"
हत्थ-संजए, वाय संजए संजइन्दिए।
अज्झप्परए सुसमहियप्पा, सुत्तत्यं च वियाणइ जे सभिक्खू॥१५॥
जो साधु हाथों से, पैरों से, वचन से, एवं इन्द्रियों से संयत है, अध्यात्मभाव में लीन रहता है, ध्यान कारक गुणों में आत्मा को सुस्थित करता है, और सुत्रार्थ को यथार्थ जानता है। वह भिक्षु है॥१५॥
उवहिम्मि अमुच्छिए अगिद्धे, अन्नाय उर्छ पुल-निप्पुलाए।
कयविक्कय न सन्निहि ओविरए, सव्व-संगावगए य जे स भिक्खू॥१६॥ जो साधु उपधि में अमूर्छित है, आसक्ति रहित है। अपरिचित घरों से शुद्ध आवश्यक अल्प वस्त्र लेता है, संयम को नि:सार करनेवाले दोषों से रहित है क्रय- विक्रय और संग्रह से रहित है, द्रव्य भाव संग का त्यागी है, वह भिक्षु है॥१७॥
श्री दशवैकालिक सूत्रम् / १२२