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________________ "आचार समाधि" चउव्विहा खलु आयारसमाहि भवइ, तं जहा-नो ईहलोगट्ठयाए आयारमहिडिजा१, नो परलोगट्ठयाए आयारमहिहिजार, नो कित्ति-वण्ण-सह-सिलोगट्ठयाए आयारमहिडिजा३, नन्नत्थ आरहन्तेहिं हेऊहिं आयारमहिट्टिजा४, चउत्थं पयं भवइ, भवइ य एत्थ सिलोगो।९। जिणवयण-रए अतिन्तिणे, पडिपुण्णायय-माययहिए। . आयार समाहि-संवुडे, भवई य दन्ते भाव-सन्ध ए॥१०॥ मूल-उत्तर गुण रूप आचार समाधि चार प्रकार से है। वह इस प्रकार है(१) इहलोक में सुख प्राप्ति हेतु आचार पालन न करना। (२) परलोक में सुख प्राप्ति हेतु आचार पालन न करना। (३) कीर्ति, वर्ण, शब्द, और श्लोक के लिए आचार पालन न करना। (४) एकमेव श्री अरिहंत भगवंत द्वारा कहे हुए अनाश्रव पना (मोक्ष) प्राप्त करने हेतु आचार धर्म का पालन करना। यह चतुर्थ पद है। इसी अर्थ को दर्शानेवाला श्लोक कहा है। आचार धर्म में समाधि रखने से, आश्रव द्वार को रोकनेवाला, जिनागम में आसक्त, अक्लेशी, शान्त, सूत्रादि से परिपूर्ण, अत्यंत उत्कृष्ट मोक्षार्थी, इंद्रिय एवं मन का दमन करनेवाला बनकर आत्मा को मोक्ष के निकट करने वाला बनता है।९।१०। "उपसंहार" अभिगम चउरो समाहिओ, सुविसुद्धो सुसमाहियप्पओ। विउल-हिय-सुहावहं पुणो, कुबई सो पय-खेयमप्पणो॥११॥ जाइमरणाओ मुच्चई, इत्थंथं च चएई सव्वसो। सिद्धे वा भवई सासए, देवो वा अप्परए महहिए॥१२॥ तिबेमि चार प्रकार की समाधि के स्वरूप को पूर्णरूप से जानकर, तीन योग से सुविशुद्ध सतरह प्रकार के संयम पालन में सुसमाहित श्रमण अपने लिए विपुल हितकारी एवं सुखद स्व स्थान (मोक्ष पद) को प्राप्त करता है॥११॥ इन समाधियों से युक्त श्रमण जन्म मरण से मुक्त होता है। नरकादि अवस्थाओं को सर्वथा छोड़ देता है। शाश्वत सिद्ध होता है या अल्पविकारवाला महर्द्धिक देव बनता है॥१२॥ श्री शय्यंभवसूरिजी कहते हैं कि ऐसा मैं तीर्थंकरादि द्वारा कहा हुआ कहता हूँ। श्री दशवैकालिक सूत्रम् / ११८
SR No.022576
Book TitleDashvaikalaik Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages140
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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