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तो मुनि भगवंत जो मोक्ष सुख की इच्छावाले एवं श्रुतज्ञान को प्राप्त करने हेतु उत्कट इच्छावाले हैं। उनको आचार्यादि की सेवा पूजा एवं उनकी प्रत्येक आज्ञा का पालन अवश्य करना चाहिये । सद्गुरु की आज्ञा का उल्लंघन कभी नहीं करना चाहिये । १३ से १६ ।
नीअं सेज्जं गईं ठाणं, नीयं च आसणाणि य । नीयं च पाए वन्दिज्जा, नीयं कुज्जा य अंजलिं ॥ १७ ॥
शिष्य गुरू से स्वयं की शय्या नीचे करे, उनके समीप सटकर, अति दूर गति न करे, न चले, बैठने का स्थान नीचे रखना एवं पाट आदि आसन नीचे रखना, नीचे पैरों में मस्तक नमाकर वंदन करना और झुककर हाथ जोड़कर अंजलीकर नमस्कार करना । १७ ।
संघट्टत्ता काएणं, तहा उवहिणामवि ।
खमेह अवराहं मे, वइज्ज न पुणु त्ति अ॥ १८ ॥
अनजाने में आचार्यादि सद्गुरु का अविनय हुआ हो तो शिष्य आचार्य महाराज के पास जाकर स्वहस्त से या मस्तक से गुरु चरण को स्पर्शकर या पास में न जा सके तो उपधि आदि पर हाथ स्थापन कर कहे : हे सद्गुरु भगवंत यह मेरा अपराध क्षमा करें! फिर से ऐसा अपराध नही करूंगा । १८ । (सद्गुरु का काया से स्पर्श हुआ हो या उपधि आदि उपकरण से कोई अविनय आशातना हुई हो तो उसकी क्षमा याचना करना, पुनः ऐसा अपराध नहीं करूंगा ऐसा कहना )
दुग्गओ वा पओएणं, चोइओ एवं दुबुद्धि किच्चाणं, वुत्तो वुत्तो दुष्ट बैल चाबुकादि से प्रेरित होने पर रथवहन करता है वैसे पर सद्गुरु का कार्य करता है । १९ ।
वहड़
रहं ।
पकुव्वई ॥ १९ ॥ दुर्बुद्धि शिष्य बार-बार प्रेरणा करने
आलवन्ते लवन्ते वा न निसिज्जाइ पडिस्सुणे । मुत्तुणं आसणं धीरो, सुस्सूसाए पडिस्सुणे । कालं छन्दोवयारं च, पडिलेहित्ताण हेऊर्हि ।
तेणं तेणं उवाएणं, สี तं संपडिवायए ॥ २० ॥
सद्गुरू शिष्य को एक बार या बार-बार बुलावे तो शिष्य आसनस्थ उत्तर न दे पर स्व आसन छोड़कर, सद्गुरू के पास आकर, हाथ जोड़कर उत्तर दे। शिष्य काल, गुरू इच्छा, सेवा के भेद प्रभेद को समझकर, उस-उस उपाय से उन वस्तुओं, पदार्थों का संपादन करें। सद्गुरू की इच्छानुसार प्रत्येक कार्य करें | २० |
" विनय - अविनय का फलादेश"
विवत्ति अविणीयस्स, सम्पत्ती विणीयस्स अ । जस्सेयं दुहओ नायं, सिक्खं से अभिगच्छई ॥ २१ ॥
अविनीत शिष्य के ज्ञानादि गुण का विनाश होता है और विनीत शिष्य को ज्ञानादि गुणों की प्राप्ति होती है। जिन्होंने ये दोनों भेद जाने हैं वे मुनि ग्रहण, आसेवन रूप दोनों प्रकार की शिक्षा को प्राप्त करते हैं कारण कि भाव से उपादेय का ज्ञान होता है । २१ ।
श्री दशवैकालिक सूत्रम् / ११२