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११.३-]
उत्तराध्ययनसूत्रम् अह पंचहिं ठाणेहि जहिं सिक्खा न लब्भई । थम्भा कोहा पमाएणं रोगेणालस्सएण य ॥३। अह अटहिं ठाणेहिं सिक्खासील त्ति वुच्चई। अहस्सिरे सया दन्ते न य मम्ममुदाहरे ॥४॥ नासीले न विसीले न सिया अइलोलुए। अकोहणे सच्चरए सिक्खासीले त्ति वुई ॥५॥ अह चोद्दसहिं ठाणेहिं वट्टमाणे उ संजए। अविणीए वुच्चई सो उ निव्वाणं च न गच्छ॥६॥ अभिक्खणं कोही हवइ पबन्धं च पकुम्बई । मेत्तिज्जमाणो वमा सुयं लद्धण मज्जई ॥७॥ आवि पावपरिक्खेवी अवि मित्तेसु कुप्पई । सुप्पियस्सावि मित्तस्स रहे भासह पावगं ॥८॥ पइण्णवाई दुहिले थद्ध लुद्धे अणिग्गहे। . असंविभागी अचियत्ते अविणीए त्ति वुच्चई ॥९॥ अह पन्नरसहिं ठाणहिँ सुविणीए त्ति वृच्चाई । नीयावत्ती अचवले अमाई अकुऊहले ॥१०॥ अप्पं च अहिक्खिवई पबन्धं च न कुवई। मेत्तिज्जमाणो भयई सुयं लबुं न मज्जई ॥११॥ न य पावपरिक्खेवी न य मित्तेसु कुप्पई । अप्पियस्सावि मित्तस्स रहे कल्लाण भासई ॥ १२ ॥ कलहडमरवज्जिए बुद्ध अभिजाइए। हिरिमं पडिसंलीणे सुविणीए त्ति वुच्चई ॥ १३॥ वसे गुरुकुले निच्च जोगवं उवहाण । पियंकरें पियंवाई से सिक्खं लद्धमरिहई ॥१४॥ जहा संखम्मि पयं निहियं दुहओ वि विराया। एवं बहुस्सुए भिक्खू धम्मो कित्ती तहा सुयं ॥१५॥ जहा से कम्बोयाणं आइण्णे कन्थए सिया। आसे जवेण पवरे एवं हवई बहुस्सुए ॥१३॥ जहाइण्णसमारूढे सूरे दढपरक्कमे। उभओ नन्दिघोसेणं एवं हवइ बहुस्सुए ॥१७॥