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उत्तराध्ययनसूत्रम् (अध्यनन २१ )
सव्वेहि भूएहि दयाणुकंपे, खं तिक्खमे संजयबंभयारी | सावज्जजेागं परिवज्जयंता, चरिज्ज भिक्खू सुसमाहिइ दिए || १३|| काले काल विहरेज्ज रट्टे, बलाबल जाणिय अपणाय । सीहा व सद्देण न संतसेज्जा, वयजोग सुच्चा न
असच्चमाहु ॥ १४ ॥ उवेहमाणो उ परिव्वज्जा, पियमप्पियं सव्व तितिक्खएज्जा । न सव्व सव्वत्थऽभिरायएज्जा, न यावि पूयं गरह च
संजए ।। १५ ।।
अगछदा इह माणवेहिं, जे भावओ संपगरेइ भिक्खू । भयभेरवा तत्थ उइति भीमा, दिव्वा मणुस्सा अदुवा तिरिच्छा ।। १६ ।। परीसहा व्विसहा अणेगे, सीयंति जत्था बहुकायरा नरा | से तत्थ पत्ते न वहिज्ज भिक्खू, सौंगामसीसे इव
नागराया ।। १७ ।।
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सीओसिणा समसा य फासा, आयंका विविहा फुसति देहं । अकुक्कुओ तत्थ Sहियासएज्जा, रयाइ खेवेज्ज पुरे
कया ।। १८ ।। पहाय रागं च तव दास, मोह' च भिक्खू सतत विक्खणे । मेरु व्व वाण अकंपमाणा, परीसहे आयगुत्ते सहेजा ||१९|| अन्नए नावणए महेसी, न यावि पूयं गरह च संजए । स उज्जभाव पडिवज्ज सजए, निव्वाणमग्गं विरए उबेइ ||२०|| अरइरइसहे पहीणस थवे विरए आयहिए पहाणव ।
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