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१३० उत्तराध्ययनसूत्रम् (अध्ययन २९) समुपादेइ, जाव सजोगी भवइ, ताव ईरियावहिय कम्म निबंधइ सुहफरिस दुसमयठिइय, त पढमसमए बद्ध, विइयसमए बेइय, तइयसमए निजिण्णं; त बद्धं पुढे उदीरियं वेइयं निज्जिण, सेयाले य अकम्म चावि भवई ।। ७१ ॥ अह भाउय पालइत्ता अंतोमुहुत्तद्धावसेसाउए जोगनिरोह करेमाणे सुहुमकिरियं अप्पडिवाइं सुक्कझाणं झायमाणे तप्पढमयाए मणजोग निरू भई, वइजोग निरु भई, कायाजोगं निरूंभई, आणपाणनिराहं करेई, ईसि पंचरहस्सक्खरुच्चाणटाए य ण अणगारे समुच्छिन्नकिरियं अनियट्टिसुक्कझाण झियायमाणे वेयणिज्ज आउयं नाम गोत्त' च एए चत्तारि कम्मंसे जुगवं खवेई ।। ७२ ॥ तओ ओरालियतेयकम्माई सव्वाहिं विप्पजहणाहिं विष्पजहित्ता उज्जुसेढिपत्ते अफुसमाणगई उड्ढे एगसमएण अविग्गहेण तत्थ गता सागारावउत्ते सिज्झई बुज्झई जाव अंतं करेई ॥ ७३ ॥ एस खलु सम्मत्तपरकमस्स अन्झयणस्स अटे समणेण भगवया महावीरेण आघविए पन्नविए परुविए द सिए उवदसिए ॥ ७४ ॥ त्ति बेमि ॥ इति सम्मत्तपरक्कमे णाम एगोणतीसइम' अज्झयण समत्त ॥ २९ ॥