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________________ [ ७८ ] द्रव्य, गुण और पर्याय में से प्रत्येक की सप्तभंगी बनती है। इस सप्तभंगी के परिणाम को ही स्याद्वादपन कहा गया है। स्वधर्म में परिणत होना अस्ति धर्म है और अन्य धर्म में परिणत होना नास्ति धर्म है । यह सप्तभंगी वस्तु धर्म में है । वस्तु अपने पर्याय में वर्तमान है, उसमें अन्य पर्याय का, जिसमें दूसरी वस्तु परिणत है, असद्भाव है । वह नास्ति धर्म है। एक ही वस्तु में अस्ति और नास्ति धर्म समकाल में रहते हैं । वस्तु के अनन्त अस्ति और अनन्त नास्ति धर्म केवल ज्ञानी को समकाल में ही भासित होते हैं तथा भगान्तर बचन से उनको कह भो सकते हैं। छद्मस्थ उनके समकालिक अस्तित्व को श्रद्धापूर्वक मानता है। श्री श्रुत केवली को वस्तु के अनन्त धर्म क्रमशः भासित होते हैं क्योंकि भाषा के द्वारा उनका कथन क्रमशः ही हो सकता है। सब धर्मों का कथन एक साथ होना सम्भव नहीं, यही कारण है कि उनके पूर्व में 'स्यात्' पद का प्रयोग किया जाता है अन्यथा कथन में असत्यता आती है। इसीलिये 'स्यात्' शब्द पूर्वक सप्तभंगी का प्रयोग किया जाता है। द्रव्य, गुण, पर्याय स्वभाव है वह सब द्रव्यों में समान है, इसको ही दृष्टान्त द्वारा समझाते हैं। मुह, ओष्ट, गला, कपाल कुक्षितला आदि सब पर्याय की अपेक्षा से घट सत् है। घट में उसके पयोयादि का जब सद्भाव माना जायगा तभी कुम्भ उसके धर्म की अपेक्षा से सत् कहा जा सकता है। अन्य धर्मों का उसमें अभाव है यह सूचित करने के लिये 'स्यात्' पूर्वक अस्ति भंग कहना चाहिये। इस प्रकार 'स्यात् अस्ति घट:' यह प्रथम भंग हुआ। इसी तरह जीव ज्ञानादि धर्मों की अपेक्षा से अस्ति रूप है, इसलिये 'स्यात् अस्ति जीवः' यह प्रथम भंग हुआ । पट में वर्तमान शरीर को ढकना, लम्बा फैल जाना इत्यादि धर्मों का घट में नास्तिव है, क्योंकि ये धर्म पट के हैं घट के नहीं, इसलिये पट के धर्मों
SR No.022554
Book TitleSyadvad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShankarlal Dahyabhai Kapadia, Chandanmal Lasod
PublisherShankarlal Dahyabhai Kapadia
Publication Year1955
Total Pages108
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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