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________________ [ ५७ ] (भेद) अवक्तव्य का कहा है। किन्तु जगत् के साथ उसका कोई सम्बन्ध नहीं | जो लोग जगत के कर्त्ता ईश्वर को मानते हैं, वे ही सर्वशक्तिमान है, अन्य उससे नीचे हैं, ऐसी मान्यता वाले जगत को बीच का, माध्यमिक, सत्य-असत्य का मिश्रण मानते हैं । किन्तु जो लोग, "आत्मा सो परमात्मा" यानी आत्मा वही परमात्मा है, ईश्वर है, प्रभु है, सर्वशक्तिमान है । ऐसा मानते हैं, वे वैसी मान्यता नहीं रखते हैं। तथा "स्याद्वाद" का सिद्धान्त वैसा सूचित भी नहीं करता । वह तो समग्र सत्य की ओर ले जाता है । "स्याद्वाद" मानी सत्य और निश्चित मानी है । उसमें असत्य किंवा अनिश्चित का स्थान नहीं है । क्योंकि वह आपेक्षिक सत्य हैं । हेतु - पूर्वक वचन है । जो हेतु पूर्वक वचन होता है वह सत्य ही होता है । अन्यथा वह प्रमाण- शास्त्र के आधार से हेत्वाभास हो जाता है । इससे समझा जा सकता है कि "स्याद्वाद' की वाणी में असत्य तथा अनिश्चता को स्थान नहीं है । उसमें संशय-वाद को भी स्थान नहीं है । प्रो० आनन्द शङ्कर बापूभाई धृव ने "स्याद्वाद" के विषय में मत देते हुए कहा है, "स्याद्वाद" संशयवाद नहीं, वल्कि वस्तु-दर्शन की व्यापकता का ज्ञान सिखाता है ।" वस्तु अनन्त धर्मात्मक है । जिससे उसके आपेक्षिक विरुद्ध धर्मों का भी यह समावेश कर सकता है उदाहरण के तौर पर, एक ही मनुष्य पिता की अपेक्षा से पुत्र तथा पुत्र की अपेक्षा से पिता है । इस प्रकार उनके आपेक्षिक विरुद्ध धर्मो का समावेश कर सकता है, वह सत्य है । किन्तु उससे ऐसा नहीं समझना चाहिये कि वह वस्तु उससे विरुद्ध स्वभाव वालीं दुसरी वस्तु को
SR No.022554
Book TitleSyadvad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShankarlal Dahyabhai Kapadia, Chandanmal Lasod
PublisherShankarlal Dahyabhai Kapadia
Publication Year1955
Total Pages108
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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