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________________ [ ५३ ] से सिद्ध होना चाहिये । प्रमाण से प्रसिद्ध पदार्थ को "स्याद्वाद" नहीं मानता है। सारांश यह है कि मुमुक्षु लोग तत्व को सम्यक ज्ञान पूर्वक, असंख्य-दृष्टि से विचार कर संसार की असारता को छोड़कर मुक्ति प्राप्त करते हैं। वैसे गृहस्थ लोग भी अमुक वस्तु को असंख्य दृष्टि से देखकर लाभ उठाते हैं यानी स्याद्वाद, यह व्यवहार एवं निश्चय दोनों मार्ग का प्रदाता है । "स्याद्वाद की सिद्धि" प्रत्येक द्रव्य, प्रतिक्षण उत्तर परियाय होने से पूर्व परियाय का नाश होने पर भी स्थिर रहता है। जैसे दो बालक की माता एक होती है, वैसे उत्पन्न और नाश का अधिकरण एक ही द्रव्य होता है। इस प्रकार उत्पत्ति और व्यय होने पर भी द्रव्य तो स्थिर ही रहता है । एक वस्तु उत्पाद, व्यय और द्रव्य रूप है। फिर भी द्रव्य की अपेक्षा से कोई भी वस्तु उत्पन्न नहीं होती और साथ ही नाश भी नहीं होती। क्योंकि द्रव्य में भिन्न परियाय उत्पन्न और नाश होने पर भी द्रव्य तो एक रूप में ही दिखता है। द्रव्य की अपेक्षा से प्रप्येक वस्तु स्थिर है। केवल परियाय दृष्टि से ही उस की उत्पत्ति तथा नाश होता है। उत्पाद आदि परस्पर भिन्न होने पर भी एक दूसरे से निरपेक्ष नहीं है। तथा यदि वे एक दूसरे निरपेक्ष माने जाये तो आकाश कुसुम की तरह उसका अभाव हो जायगा । उदाहरणार्थ, एक राजा को एक पुत्र तथा एक पुत्री थी। पुत्री के पास एक सुवर्ण का घट था। राजा के पुत्र ने उसे तोड़वा कर उसका मुकुट बनवाया। इससे राजपुत्री को शोक हुआ। क्योंकि घड़ा उसका था। पुत्र को खुशी हुई, क्यों कि उसको मस्तक पर धारण करने के लिये एक सुन्दर मुकुट मिला।
SR No.022554
Book TitleSyadvad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShankarlal Dahyabhai Kapadia, Chandanmal Lasod
PublisherShankarlal Dahyabhai Kapadia
Publication Year1955
Total Pages108
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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