SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 61
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [ ४२ ] रूप अर्थात् स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल और स्वभाव से सत् और परद्रव्य, पर-क्षेत्र, परकाल और परभाव से असत् है। इस प्रकार स्याद्वाद सभी वस्तुओं को द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव से नापता है। शास्त्रों में भी यही आज्ञा है कि द्रव्य-क्षेत्र काल-भाव के अनुसार चलना चाहिए। इससे परिणाम यह होता है कि कोई भी व्यक्ति इस प्रकार जो विचार करके चलता है, वह अवश्य उसके कार्य में सफलता प्राप्त करता है। द्रव्य-क्षेत्र काल और भाव से चलना वास्तविक रीति से मनुष्य ने आर्यक्षेत्र, आर्य-कुल, आर्य-धर्म प्राप्त करके सद्भावना पूर्वक की हुई सुकृति-कमाई का सदुपयोग करके आध्यात्मिक जीवन साधने का है। यदि ऐसा हो तो वह कभी भी लाभप्रद हुए बिना नहीं रह सकता। जैसे एक मनुष्य को एक मिल बनाने का विचार हुआ। अब वह विचारे कि मिल करने और बनाने के लिए तथा उसके व्यय को पूग करने के लिये मेरे पास आवश्यक द्रव्य है या नहीं। क्षेत्र से वह यह विचारे कि मिल करने के लिए यह क्षेत्र अनुकूल है या नहीं। काल से वह यह विचारे कि यह समय मिल करने के लिए उपयुक्त है या नहीं। भाव से वह यह विचारे कि मैं इसमें दृढ़ रह सकूगा या नहीं। इस प्रकार सभी तरह के विचारों को परिपक्व बनाकर और सर्वप्रकार की अनुकूलताओं को देखकर यदि मिल करे तो वह अवश्य उस काय में सफलता प्राप्त कर सकता है। द्रव्य-क्षेत्र, कालभाव से विचार कर काम करने वाला, अन्ध कदम नहीं रख सकता। वह पर्याप्त विचार कर ही काम करता है। जिससे उसे कभी भी पश्चात्ताप करने का समय नहीं आता । और न कभी वह ना हिम्मत और निरुत्साही भी होगा। तीसरे प्रकरण में व्यक्ति-विशिष्ट का विषय लिखा गया है। उसके विकास में भी
SR No.022554
Book TitleSyadvad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShankarlal Dahyabhai Kapadia, Chandanmal Lasod
PublisherShankarlal Dahyabhai Kapadia
Publication Year1955
Total Pages108
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy