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________________ [ ३२ ) द्रव्याथिक नय में हो सकता है। तथा अनित्य, असत् एवं विशेष का समावेश पर्यायार्थिक नय में हो सकता है। ये दोनों नय, द्रव्यार्थिक तथा पर्यायार्थिक एक दूसरे की अपेक्षा करके रहते जसे लंगड़े पैर से चल नहीं सकते वैसा ही एकांत मार्ग हैं। क्योंकि उससे वस्तु का संपूर्ण स्वरूप ज्ञात नहीं होता है । मत्ती अलग अलग होते हैं। उस समय उसकी कोई कीमत नहीं होती। किन्तु उनको एकत्रित करके जब हार बनाया जाना है, तब उसकी सच्ची कीमत होती हैं तथा तभी वह आभूषणादि में भी गिना जाता है। इसमें एकांत मार्ग वहां पृथक पथक मोनी सा है। और अनेकांत मार्ग मुक्तावली के हार जैसा है। ___ वस्तु मात्र सत्-असत् रूप है । अर्थात् सत् असत. उभयरूप है। इन दोनों का एक दूसरे के साथ ऐसा निकट का सम्बन्ध है कि वह एक दूसरे के बिना कभी रह नहीं सकता। जैसे मनुष्य ने बाल-पन में जो खराब आचरण किया होता है, उसकी जवानी में वह पश्चाताप करता है । भविष्य में वैमा आचरण न हो, इसके लिए प्रयत्न करता है। इससे देखा जा सकता है कि द्रव्य' और पर्याय' तीनों काल में सम्बन्ध रहता है। क्योंकि प्रत्येक अवस्था में आत्मा नित्य-रूप में रहा हुआ ही है। और अवस्थायें अनित्यता में रही हुई हैं । वस्तु को सत् और असत मानने से कुछ लोग ऐसा आक्षेप करते है कि जैसी एक वस्त में "असत" और "सत्' दोनों मानते हैं । अर्थात् ठण्डे में गर्म और गम में ठण्डा जैसे मानते हैं । किन्तु यह आक्षेप बिना समझ का है। क्योंकि जैन सिद्धान्त वस्तु को सत् मानता है, वह स्व-स्वरूप से और असत् मानता है वह पर स्वरूप से । उदाहरणः - उदाहरणार्थ, मिट्ठी का घड़ा द्रव्यरूप से मिट्टी का है। वह जल रूप नहीं है । क्षेत्र से वह काशी का बना हुआ है, जन
SR No.022554
Book TitleSyadvad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShankarlal Dahyabhai Kapadia, Chandanmal Lasod
PublisherShankarlal Dahyabhai Kapadia
Publication Year1955
Total Pages108
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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