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________________ [ १३ ] देखता है। किन्तु पीलिया हो जाने पर उसे सफेद वस्तु भी पीली दीखती है। अतः जीवन पथ को विकसित करने में दृष्टि की प्रधानता है। मनुष्य की दृष्टि निर्मल. निष्पापी. निर्लोभी, निरागी, निराभिमानी, निःसंग और नि:स्वार्थ होती है, तब वह प्रतिभाशाली हो सकता है। और सामने वाले मनुष्य पर उसका प्रभाव पड़ता है। जिसका दृष्टिकोण पापी, विकारी, अविचारी, क्रोधान्वेषी आदि दुगुणों से भरा रहता है, वह स्वपर-हानि कारक है । अतः जीवन पथ को उज्ज्वल बनाने का सबसे अच्छा मार्ग यही है कि अपने दृष्टिकोण को शुद्ध रक्खे और सुन्दर बनाये । इसके लिए गुणानुराग कुलक" प्रन्थ का अभ्यास करना वश्यक है । इसके अतिरिक्त आठ दृष्टि की "सज्जाय" यह भी उपयुक्त ग्रन्थ है । दुज का चांद जैसे प्रकाश में बढ़ता-बढ़ता अन्त में पूर्णिमा तक पहुँच कर पूर्ण प्रकाशमान होता है, उसी प्रकार प्रथम दृष्टिसे आत्म प्रकाश प्रारंभ होकर बढ़ते बढ़ते आठवां दृष्टि में सम्पूर्ण आत्म प्रकाश होता है। इसलिए जिनको अध्यात्म दृष्टि का विकास करना हो उन्हें इन आठ दृष्टियों का पूर्ण अभ्यास, मनन और निदिध्यासन एक चित्त से करना चाहिए। उन आठ दृष्टियों के नाम ये हैं १. मित्रा, २. तारा, ३. बला, ४. विप्रा, ५. स्थिरा ६. कामता, ७. प्रभा, तथा ८. परा। -दृष्टि बिन्दु पर आध्यात्म भावना हे आत्मन् ! तू जगत के मनुष्यों के दृष्टिबिन्दु को देखने के पहले, अपने खुद के दृष्टि-विन्दु को देख कि मैं कहां खड़ा हूँ ? क्या कर रहा हूँ, कहां से आया हूँ तथा कहां जाने वाला हूँ तथा
SR No.022554
Book TitleSyadvad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShankarlal Dahyabhai Kapadia, Chandanmal Lasod
PublisherShankarlal Dahyabhai Kapadia
Publication Year1955
Total Pages108
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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