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अर्थात् उत्पत्ति के पहले, कारण में नहीं, ऐसे कार्य की उत्पत्ति स्वीकार करते हैं। सांख्य अभेदवादी हैं। इससे वे कार्य और कारण को अभिन्न मानते हैं। तथा इससे वे "सत्" अर्थात् उत्पत्ति के पहले भी कारण में विद्यमान, ऐसे कार्य की उत्पत्ति बतलाते हैं। बौद्ध भी असत में से ही कार्य की उत्पत्ति मानते हैं। इससे बौद्ध और वैशेषिक अपने सिद्धान्त को सिद्ध करने के लिये, सांख्यों का दोषं निकालकर उसे कहते हैं--"यदि कारण में उत्पत्ति के पहले भी कार्य “सत्” - विद्यमान हो तो उत्पत्ति के लिए प्रयत्न करना व्यर्थ है। वैसे ही उत्पत्ति के पहले भी सत् होने से कारण में कार्य दिखना चाहिये । और कार्य सापेक्ष, सभी क्रियायें और सभी व्यवहार कार्य का उत्पत्ति के पहले भी होना चाहिये।" ___ इसी प्रकार सांख्य भी अपने पक्ष की स्थापना करने के लिये वैशेषिक और बौद्धों के ऊपर दोष रखते हुये कहता है कि अगर असत् कार्य की उत्पत्ति होती हो तो, मनुष्य को सींग क्यों नहीं
आते " __ ये दोनों दृष्टियां, एक दूसरे को जो दोष देती हैं, वे सभी सच्चे हैं। क्यों कि उनका दृष्टिकोण एकाङ्गी होने से दूसरी तरफ नहीं देखते हैं । इस न्यूनता के कारण, स्वाभाविक रीत्या उसमें दोष
आता है, किन्तु ये दृष्टिकोण, समन्वय पूर्वक यदि जमाए जोयें तो एकदूसरे में जो न्यूनता है वह दूर हो जायगी। साथ ही वह पूर्ण भी बन जायगी। ____ स्याद्वाद दृष्टि उसके समाधान में यह कहती है कि जैसे कार्य
और कारण भिन्न हैं, वैसे ही अभिन्नभी हैं। भिन्न होने से उत्पत्ति होने के पहले कार्य असत् है तथा अभिन्न होने से सत् भी है। वह सत्य, सत्य की अपेक्षा से है, अर्थात् उत्पत्ति के लिये प्रयत्न की