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[ २ ] स्याद्-वाद एक दृष्टि का नाम है, जिसको अनेकान्त दृष्टि भी कहते हैं। यह दृष्टि मतमतान्तरों के विरोधों को प्रेमपूर्वक दूर करती है। आपसी वैमनस्य को दूर करती है और बदले में सङ्गठन बल स्थापित करती है।
"विरोधी देखे जाने वाले विचारों का वास्तविक अविरोध का मूल दिखाने वाला और वैसा करके विचारों का समन्वय कराने वाला शास्त्र भी, स्याद्-वाद कहलाता है।"
वीतराग के आज्ञानुसार समस्त वचन अपेक्षाकृत होते हैं। संसार में छः द्रव्य माने जाते हैं। सभी द्रव्य उत्पाद (उत्पत्ति), व्यय (नाश) और ध्रौव्य (स्थिति) युक्त हैं। अर्थात वे सभी द्रव्य अपने मूल स्वभाव से नित्य (ध्रुव) हैं तथा भिन्न भिन्न अवस्थाओं की अपेक्षा से वे अनित्य भी हैं। अर्थात् उत्पत्ति और विनाश होता है। उदाहरण देखिये। एक सुवर्ण की माला को गला कर उसकी चूड़ी बनाई, उसमें माला का नाश हुआ, चूड़ी की उत्पत्ति हुई और दोनों अवस्था में मुवर्ण कायम रहा । आत्मा किसी गति से मनुष्य भव से या परन्तु जिस गति से आया उस गति का नाश हुआ। मनुष्य भव की उत्पत्ति हुई और आत्मद्रव्य जो दोनों में था, कायम रहा। . इस प्रकार एक ही वस्तु में परस्पर विरुद्ध देखे जाने वाले, नित्य अनित्य धर्म, सापेक्षरीत्या सत्य हैं। इसी प्रकार दूसरे द्रव्य भी सापेक्षता पूर्वक उत्पत्ति , स्थिति और विनाश स्वभाव वाले समझने चाहिये।
१-नोट:-पं० सुखलाल जी के तत्वार्थ सूत्र का प्रथम अध्याय, पृष्ठ ६४।