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________________ [ १] सत्वासत्व का युगपत कथन नहीं हो सकता, क्योंकि पर पर्याय से कुम्भ अकुम्भ है इसीलिये अवक्तव्य है और बिना कथमें किये श्रोता को उसका ज्ञान नहीं हो सकता इसलिये अन्य भंगों के अनुसार 'स्यात' पद लगाकर, स्यान्नास्ति' अबक्तव्य रूप छट्ठा भंग कहा गया। सातवां भंग । - 'स्यादरमेव स्यान्नास्त्मेव घटः स्यात+अस्ति + एव + स्यात+ न+अस्ति + एव+स्यात+अवक्तव्य+एव+घटः) ___ अर्थात किसी दृष्टि से घट है, किसी दृष्टि से घट नहीं है और किसी दृष्टि से घट अवक्तव्य है। एक देश में स्वपर्याय की अपेक्षा से अस्तित्व और अन्यत्र पर पर्याय की अपेक्षा से नास्तित्व तथा अन्य देश में स्वपर रूप उभय पर्यायों की अपेक्षा से सत्वासत्व रूप उभय पर्यायों का समकालिक कथन अवक्तव्य होने के कारण उभय धर्मों की विवक्षा के लिये स्यात् अस्ति नास्ति युगपत वक्तव्य रूप'सातवां भंग हुभा। इस प्रकार एक धर्म को लेकर यह सप्तभंगी कही गई है । 'नय चक्र' में तीसरा भङ्ग 'स्यादवक्तव्य' को लिखा है 'सम्मति तर्क' के द्वितीय कांड में सप्तभङ्गी के स्वरूप का प्रतिपादन हुआ है, उसमें भी 'स्यादवक्तव्य' को ही तीसरा भंग बतलाया गया है। टीकाकार ने भी इसी भङ्ग को तीसरा भङ्ग माना है । इस प्रकार दो ग्रन्थों में इसी को तीसरे भाग के रूप में स्वीकार करते हुये 'स्याद्वक्तव्य' की गणना सकलादेश में की है। किन्तु स्यावाद मंजरीरत्नाकरावतारिका', 'मागमसार' तथा श्री प्रात्माराम जी
SR No.022554
Book TitleSyadvad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShankarlal Dahyabhai Kapadia, Chandanmal Lasod
PublisherShankarlal Dahyabhai Kapadia
Publication Year1955
Total Pages108
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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