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श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
[ अविरति अरु देशविरति, सर्वविरति है प्रथम में, आर्तध्यान संभाव्य है, हीन हीनतर योग में। हिंसा असत्य, स्तेय एवं विषय संरक्षण चतुर्थ, ध्यान रौद्र के भेद चारों, तत्त्वार्थाधिगमें स्पष्ट अर्थ॥ अविरति औ विरति से ही रौद्र की संभावना, प्रमत्त मुनि सर्वविरति, ध्यान, रौद्र न कामना। आज्ञा, अपाय, विपाक फिर विषय संस्थान लिए, धर्मध्यानी अप्रमत्त मुनि ये चारों स्वीकृत किए। उपशान्त मोही, क्षीण मोही, उक्तध्यान निरत सदा, छेद करके कर्मपाश मुदित ध्यान में सदा। प्रथम दूसरे शुक्ल भेद, पूर्वधर ध्याते सदा,
चरमशुक्ल भेद जो दो, केवली पाते सदा॥ ॐ सूत्राणि - पृथकत्व-वितर्क सूक्ष्म + क्रियापत्ति + व्युपरत + क्रियाऽनिवृत्तीनि ॥४१॥ तत्र्येककाय योगा योगानाम् ॥४२॥ एकाश्रये सवितर्के पूर्वे ॥४३॥ अविचारं द्वितीयम् ॥४४॥ वितर्कः श्रुतम् ॥४५॥ विचारोऽर्थव्यञ्जन योगसंग्रान्तिः ॥४६॥ * हिन्दी पद्यानुवाद -
प्रथम शुक्ल ध्यान उत्तम, नाम से वर्णन करूँ, पृथकत्व वितर्क सविचार आद्य में इसको वरूं। एकत्व वितर्क अविचार, द्वितीय भेद है शुक्ल का, क्रमशः इन्हें ध्याते चलो तो हो परिचय आत्म का॥ फिर तीसरा है भेद सूक्ष्म, क्रिया प्रतिपाती शुभ, और चौथा भेद व्युपरत, क्रिया निवृत्ति शुभ। अनुक्रम से योग त्रिक ये, एक योग भी वर्तना, काययोगी फिर अयोगी, अनुक्रम से साधना॥