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९।१ ] श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
[ ६९ सूत्रार्थ - संयम, श्रुत, प्रतिसेवना, तीर्थ, लिङ्गलेश्या, उपपात तथा स्थान के भेद से इन निर्ग्रन्थों की विशेषताएं है।
* विवेचनामृतम् * पूर्वोक्त पांच प्रकार के निर्ग्रन्थों के विशेष स्वरूप ज्ञान के लिए इस सूत्र में विचार किया गया है। यहाँ विशेष विचार यह है कि संयम आदि आठ विशेषताओं में से किस निर्ग्रन्थ का कितना सम्बन्ध है
१. संयम - सामायिक आदि पाँच संयमों में से सामायिक तथा छेदोपस्थापनीय इन दो संयमों में पुलाक, बकुश तथा प्रतिसेवना कुशील- ये तीन निग्रन्थ होते हैं, कषाय कुशील उक्त दो एवं परिहार विशुद्धि व सूक्ष्म सम्पराय- इन चार संयमों में होता है। निर्ग्रन्थ और स्नातक एकमात्र यथाख्यात संयम वाले होते हैं।
२. श्रुत - पुलाक, बकुश और प्रतिसेवना कुशील- इन तीनों का उत्कृष्ट श्रुतपूर्ण, दशपूर्व और कषायकुशील एवं निग्रन्थ का उत्कृष्ट श्रुत चतुर्दश पूर्व होता है, जघन्य श्रुत पुलाक का आचार वस्तु होता है, बकुश, कुशील एवं निर्ग्रन्थ का अष्टप्रवचनमाता प्रमाण होता है। स्नातक सर्वज्ञ होने के कारण श्रुत से परे ही होता है।
३. प्रतिसेवना - पुलाक पाँच महाव्रत और रात्रि भोजन विरमण- इन छ: में से किसी भी व्रत का दूसेर के जोर से खंडन करता है। कुछ आचार्यों के मत से पुलाक चतुर्थव्रत का विराधक है।
बकुश - दो प्रकार के होते हैं- उपकरण बकुश, शरीर बकुश। उपकरण में आसक्त बकुश अनेक बहुमूल्य उपकरण चाहता है,संग्रह करता है तथा नित्य संस्कार (सज्जा) करता है। शरीर में आसक्त बकुश शरीर शोभा में तत्पर रहता है।
प्रति सेवनाकुशील मूलगुणों की विराधना तो नहीं करता पर उत्तरगुणों की कुछ विराधना करता है। कषायकुशील निर्ग्रन्थ, तथा स्नातक के द्वारा विराधना नहीं होती है।
४. तीर्थ - तीर्थ का तात्पर्य है-शासन। पाँचों प्रकार के निर्ग्रन्थ तीर्थकरों के शासन-काल में होते हैं।
कुछ आचार्यों की मान्यता है कि पुलाक, बकुश और प्रतिसेवना कुशील ये तीनों तीर्थ में नित्य होते हैं तथा शेष कषाय कुशील आदि तीर्थ में होते भी हैं तथा कभी नहीं भी।
५. लिङ्ग - द्रव्य और भाव के भेद से लिङ्ग (चिह्न) दो प्रकार के होते हैं - १. चरित्रगुण भाव लिङ्ग कहलाता है। २. विशिष्ट वेष-द्रव्यलिङ्ग कहलाता है।