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श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
[ ९।१ २. अपायविचय - अपाय का अर्थ है- दुगुर्ण/दोष/आत्मा के साथा मिथ्यात्व, अव्रत, प्रमाद, कषाय एवम् अशुभ योग- इन दोषों के कारण ही आत्मा जन्म-मरण के चक्र में भटकता है, दु:ख वेदना प्राप्त करता है।
दोषों को शुद्धि के लिए किया जाने वाला चिन्तन करना 'अपाय विचय' है। यह धर्मध्यान का दूसरा स्वरूप है।
३. विपाक विचय - मिथ्यात्व आदि पंच दोष कर्मबन्ध के कारण है क्योंकि वे प्रमाद स्वरूप है। प्रमाद स्वयं भी कर्मरूप है। कहा भी है
___'पमायं कम्म माहंसु पाप के कट परिणामों एवं पुण्य के शुभ फलों का चिन्तन धर्मध्यान का विपाक विचय नामक तीसरा धर्मध्यान है।
४. संस्थान विचय - संस्थान का अर्थ है- आकार। विश्वसम्बन्धी विषयों के साथ आत्मसम्बन्ध जोड़कर उनका आत्माभिमुखी चिन्तन करना 'संस्थान विचय' कहलाता है।
धर्मध्यानी की पहचान चार लक्षणों पर आधारित है - १. आज्ञारुचि २. निसर्ग रुचि ३. सूत्र रुचि ४. अवगाढरुचि धर्मध्यान के चार अवलम्बन है - १. वाचना २. पृच्छना ३. परिर्वतना ४. धर्मकथा धर्मध्यान की चार भावनाएं भी है
१. एकत्वानुप्रेक्षा - आत्मा एकाकी है, कोई किसी का नहीं है। एकत्व में आनन्द है, द्विविधा में दुःख है- यह चिन्तन एकत्वानुप्रेक्षा का प्रमुख स्त्रोत है।
२. अनित्यानुप्रेक्षा - शरीर, धन आदि सब नश्वर है। कोई वस्तु स्थिन नहीं है, सब क्षणिक हैं -इत्यादि चिन्तन ‘अनित्यानुप्रेक्षा' कहलाता है।
३. अशरणानुप्रेक्षा - संसार में कोई शरण नहीं है। यहाँ कोई संसारी किसी का रक्षक नहीं होता है- एतत् प्रकारक चिन्तन अशरणानु प्रेक्षा कहलाता है।
___ जिसके सकल कषाय उपशान्त हो चुके हैं, ऐसे ग्यारवें गुणस्थानवर्ती, जीव के और जिसके सम्पूर्ण कषाय सर्वथा नि:शेष-क्षीण हो गऐ है, ऐसे क्षीण कषाय नामक बारहवें गुणस्थान वाले जीव के भी धर्मध्यान होता है ॥३८॥ ____ १. सूत्रकृताग १/८/३