________________
श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
[ ९।१ * विवेचनामृतम् * अर्ति का अर्थ है- पीड़ा, वेदना, दु:ख। अर्तिजन्य ध्यान को आर्तध्यान कहते हैं। अर्ति/दु:ख की उत्पत्ति के प्रमुख चार कारण हैं- १. अमनोज्ञ/अनिष्ट वस्तु संयोग २. इष्ट वस्तु का वियोग ३. प्रतिकूल वेदना ४. भोगलालसा। इनके कारण ही चार प्रकार के आर्तध्यान शास्त्रों में वर्णित हैं।
जो जीवात्मा आर्तध्यान करता है- उसकी आकृति दीन-हीन म्लान सी शोक संतप्त सी दृष्टि गोचर होती है किन्तु कभी-कभी तो यह स्थिति, चिन्ता एवं व्याकुलता की स्थिति को लांघ जाती है। रोना, सिर पीटना, छाती पीटना आदि तक पहुँच जाती है। आर्तध्यानी की स्थिति को स्पष्ट करने के लिए भगवती सूत्र में कहा है
अट्टस्स णं झाणस्स चत्तारि लक्खणा।
कंदणया, सायणया, तिप्पणया, परिदेवनया।' अर्थात् इन लक्षणों से आर्तध्यानी की पहचान सम्भव है१. क्रन्दनता - विलाप करना, चींखना-चिल्लना। २. शोचनता - शोक-चिन्ता करना। ३. तिप्पणता - आँसू बहाना। ४. परिवेदना - ह्यदयघातक शोक करना, फूट-फूट कर रोना, छाती पीटना आदि।
इसी तत्त्व को आत्मसात् करके श्री उमास्वाति ने वेदनायाश्च सूत्र के माध्यम से स्पष्ट किया है कि वेदना का संयोग हो जाने पर उसके निवारण के लिए पुन: पुन: विचार या चिन्तन करनाद्वितीय आर्तध्यान कहलाता है।
卐 मूल सूत्रम् -
विपरीतं मनोज्ञानाम्॥३३॥
+ सुबोधिका टीका ॥ विपरीतमिति। प्रियवस्तुनो वियोगे सति तदवात्ये सततं यत्र चिन्ता प्रवर्तते तत् तृतीयम् आर्तध्यानमिति। यदा-अभीष्टरमणीयविषयाणां संयोगान्ते वियोगो भवति तदा तत् प्राप्तते मुहर्मुहुः चिन्तनम् आर्तध्यानमुच्यते। इदञ्च इष्ट वियोगनामकम् आर्तध्यानम्।
१. भगवती सूत्र २५/७