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श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
[ ९।१
जन्म-मरण के चक्र में भटक कर पीड़ा सन्ताप प्राप्त करता है । इसे कैसे कम किया जाए, किन साधनों से दोषों को दूर किया जाए - एतत् प्रकारक चिन्तन अपाय विचय कहलाता है। यह धर्म ध्यान का द्वितीय स्वरूप है।
३. विपाक विचय- शुभाशुभ कर्मों के विपाक परिणामों को ज्ञानी आत्मा समझता है
सयमेव मकडेहिंगाहइ नो तस्स मुच्चेञ्जडपुट्ठय'
आत्मा, स्वकृत कर्मों से ही बन्धन में पड़ता है और जब तक उन कर्मों को भोगा न जाये, तब तक उनसे मुक्ति नहीं मिलती । पाप-पुण्य कर्मों के दुःखब - सुखात्मक परिणामों का चिन्तन करना 'विपाक विचय' कहलाता है । सुखविपाक एवं दुःख विपाक में प्ररूपित दृष्टान्त अवश्य देख चाहिए।
लोक के आकार एवं स्वरूप के विषय में चिन्तन करना, स्वर्ग -: - नरक के विषय में चिन्तन करना, आत्मा-भ्रमण के सन्दर्भ में चिन्तन करना नानाविध योनियों में दु:ख - वेदना का चिन्तन करना-संस्थान विचय कहलाता है।
इसमें नानाविध आकार स्वरूप का चिन्तन आत्माभिमुखी होता है।
5 सूत्रम् -
परे मोक्षहेतू ॥३०॥
सुबोधिका टीका
ध्याने मोक्षस्य
पर इति । धर्म - शुक्ल कारणत्वात् सुध्याने, उपादेये अर्थात् तेषां पूर्वोक्तानां चतुर्णां ध्यानानां
स्तः ।
परे धर्म - शुक्लध्याने आर्तरौद्रे
मोक्षहेतू
तु संसार हेतू
* सूत्रार्थ - धर्मध्यान और शुक्ल ध्यान मोक्ष के हेतु (कारण) हैं ॥ ३० ॥
स्तः ।
प्रथिते ।
* विवेचनामृतम्
आर्तध्यान, रौद्रध्यान, धर्मध्यान तथा शुक्लध्यान- ये चार प्रकार के ध्यान हैं। इन चार ध्यानों में से धर्मध्यान एवं शुक्लध्यान मोक्ष हेतु हैं । धर्म तथा शुक्ल मोक्ष के कारण होने के कारण
१. सूत्रकृतांग - १ । २ । / ११४