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________________ ५२ ] श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे [ ९।१ आर्तध्यान की स्थिति का दिग्दर्शन कराने के लिए उसके चार लक्षण इस प्रकार है - १. क्रन्दनता - रोना, विलाप करना। २. शोचनता - शोक करना/चिन्ता करना। ३. तिप्तणता - आंसू बहाना।। ४. परिवेदना - ह्यदयावर्जक शोक, उदासी। ... ये चारों लक्षण मन की व्यथित दशा के सूचक हैं। रौद्रध्यान - रौद्रध्यान में क्रूरता एवं हिंसक भावों की प्रधानता रहती है। रौद्रध्यान, आत्मघात के साथ-साथ पराघात भी करता है। दु:खी व्यक्ति जब अपना दु:ख दूर होता नही देखता है तो दूसरों की सहानुभूति और सहयोग की जगह अपमान व प्रताड़ना पाता है तो वह आक्रामक हो जाता है। यह आक्रामक भावना जब तक उसके चिन्तन में रहती है तब तक रौद्रध्यान होता है किन्तु आचरण में परिणत होते ही यह-रौद्र आचरण का रूप ले लेती है। शास्त्रों में रौद्रध्यान की उत्पत्ति के चार कारण बताए गए हैं - १. हिंसाणुवंधी - किसी को मारने, पीटने या हत्या आदि करने के सम्बन्ध में चिन्तन करना, गुप्त योजनायें बनाने के लिए विचार करना-हिंसानुबन्धी रौद्रध्यान कहलाता है। २. मोसाणुबंधी - दूसरों को ठगने, धोखा देने, छल, प्रपंच करने सम्बन्धी सोच रखना, सत्य तथ्यों का अर्थ बदलकर लोगों को गुमराह करने सम्बन्धी चिन्तन मृषानुबंधी रौद्रध्यान कहलाता है। ३. तेयाणुबंधी - चोरी, लूट, खसोट आदि उपायों व उनके साधनों पर विचार करना, चोरी के नये-नये रास्ते सोचते रहना, या उसे छिपाना स्तेयानुबन्धी रौद्रध्यान कहलाता है। ४. सारक्खाणुबंधी - जो धन, वैभव, पद प्रतिष्ठा आदि साधन एवं भोग-विलास की सामग्री प्राप्त है- उसके संरक्षण की चिन्ता करना तथा उसके सुख-भोग में बाधक की हत्या आदि करके अपने सुख का मार्ग निष्कंटक करने सम्बन्धी चिन्तन संरक्षणानुबंधीरौद्रध्यान कहलाता है। * धर्मध्यान * धर्म का आशय है- आत्मा को पवित्र करने वाला तत्त्व। जिस आचरण से आत्मा की विशुद्धि होती है- उसे धर्म कहते हैं। धार्मिक विचारों में आत्मशुद्धि के साधनों में मन को एकाग्र करना 'धर्मध्यान' कहलाता है। १. दशवैकालिक अ.१, वृत्ति।
SR No.022536
Book TitleTattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tika Tatha Hindi Vivechanamrut Part 09 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaysushilsuri
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year2008
Total Pages116
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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