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५० ] श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
[ ९।१ कुछ लोग खास-उच्छवास रोके रखने को ही ध्यान मानते हैं तथा अन्य कुछ लोग मात्रा से काल की गणना करने को ध्यान मानते हैं परन्तु जैन परम्परा में यह कथन स्वीकार नहीं किया गया है क्योंकि यदि सम्पूर्णतया श्वास-उच्छवास क्रिया रोक दी जाय तो शरीर ही नहीं टिकेगा। अत: मन्द या मन्दतम श्वास का संचार तो ध्यानावस्था में भी रहता ही है।
अन्तर्मुहूर्त का काल परिमाण छद्मस्थ के ध्यान का है। सर्वज्ञ के ध्यान का कालपरिमाण तो अधिक भी हो सकता है क्योंकि सर्वज्ञ, मन, वचन और शरीर के प्रवृत्ति विषयक सुदृढ़ प्रयत्न को अधिक समय तक संवर्धित कर सकता है।
जिस आलम्बन पर ध्यान चलता है, वह आलम्बन सम्पूर्ण द्रव्यरूप न होकर उसका एक देश (पर्याय) होता है क्योंकि द्रव्य का चिन्तन उसके किसी न किसी पर्याय द्वारा ही सम्भव होता है ॥२७-२८॥
* ध्यानस्य भेदाः * 卐 सूत्रम् -
आर्त रौद्र धर्म शुक्लानि ॥२६॥
卐 सुबोधिका टीका आर्तेति। पूर्वकथितस्य ध्यानस्य चत्वारो भेदा: सन्ति। तद्यथा-आर्तध्यानम् रौद्रध्यानम्, धर्मध्यानम्, शुक्लध्यानम् चेति। अर्ति म दुःखम्, अर्ते: भाव: सम्बन्धो वेति आर्तम्। आर्तञ्च तद् ध्यानमार्तध्यानम्।
क्रोधादियुक्त भाव: रौद्र शब्देन कथ्यते। रौद्राञ्च तद् ध्यानमिति रौद्रध्यानम्। यस्मिन् ध्याने धर्मस्य वासनाया: वा विच्छेदो न भवति तद् धर्मध्यानं कथ्यते। क्रोधादिकषाय निवृत्ति पूर्वकं यत्र शुचिता-पवित्रता प्रतिष्ठिता तद् ध्यानं शुक्लध्यानं कथ्यते।
* सूत्रार्थ - ध्यान के चार भेद होते है- आर्तध्यान, रौद्रध्यानम, धर्मध्यान और शुक्लध्यान।
___* विवेचनामृतम् * आर्तध्यान, रौद्रध्यान, धर्मध्यान तथा शुक्लध्यान के भेद से ध्यान के चार प्रकारों का वर्णन किया गया है।
अर्ति = पीड़ा से सम्बन्धित ध्यान को आर्त ध्यान कहते हैं। आर्त का अर्थ है- दुःख, पीड़ा, चिन्ता शोक आदि से सम्बन्धित भावना। जब भावना में दीनता मन में उदासीनता, निराशा एवं रोग