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श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
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अर्थात् कुटुम्ब, कचंन, कामिनी, काया कीर्ति - इत्यादि पदार्थों की अनित्यता का चिन्तन करना ही अनित्य भावना है। संसार में जहाँ संयोग है वहाँ अवश्य वियोग है। इस प्रकार सर्वप्रकार का संयोग अनित्य है। संसार के समस्त सुख कृत्रिम होने के कारण विनाशशील है । केवल जीवात्मा और जीवात्मा का सुख ही नित्य है।
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फल इस प्रकार की विचारणा से बाह्य वस्तु पर अभिष्वग - ममत्व भाव नहीं होता। इससे जब वस्तु / पदार्थों का वियोग होता है तब दुःख का अनुभव नहीं होता है।
ऐसा चिन्तन करने से तत्वियोग जनित दु:ख नहीं होता, इसको ही अनित्यानुप्रेक्षा ( अनित्यभावना ) कहते हैं ।
२. अशरणानुप्रेक्षा - संसार में हमारी रक्षा करने वाली शरण नहीं है। कोई हमारा रक्षण करने वाला, हमें शरण प्रदान करने वाला नहीं है। इसे ही 'अशरणभावानुप्रेक्षा' ( अशरणभावना ) कहते हैं।
जैसे - महारण्य में क्षुधातुर सिंह द्वारा सताये हुए मृग बच्चे का कोई सहायक नहीं होता है, वैसे संसाररूपी महारण्य में परिभ्रमण करते हुए जन्म, जरा और मृत्यु आदि अनेक व्याधियों से ग्रस्त जीवात्मा का धर्म के बिना कोई शरण नहीं है।
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अर्थात् जीवात्मा को रोगादि तथा अन्य कोई दुःख आने पर भौतिक साधनों के स्नेही, दु:ख से बचाने के लिए समर्थ नहीं होते तथा अनेक बार तो देखने में ऐसा आता है कि वे तथाकथित स्नेहीजन अधिक दु:ख-सवर्धन के कारण बनते है। वस्तुत: ऐसे समय पर तो देव, गुरू और धर्म ही रक्षण करते हैं, सान्त्वना प्रदान करतें हैं ।
फल
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इस संसार में मैं 'अशरण हूँ' इस प्रकार विचार करते हुए संसार के भय उत्पन्न होने से संसार पर और संसार के सुखों पर अनुराग नहीं होता है तथा जगत में श्री जिनशासन ही शरणस्वरूप है। ऐसा ध्यान में आने से उसकी आराधना के लिए प्रवृत्ति होती है। अर्थात् भावल्ला प्रगट होता है। इस विचार श्रेणी को ही अशरणभावना ( अनुप्रेक्षा) कहते हैं।
३. संसारानुप्रेक्षा - संसार भावना अर्थात् संसार स्वरूप का चिन्तन करना । यह संसार हर्ष विषाद, सुख तथा दुःखादि द्वन्द्व विषयों का उपवन (बगीचा) है। इस अनादि जन्म-मरण की घटमाल में जीवात्मा का कोई वास्तविक स्वजन या परजन नहीं है । जन्मान्तर में सब प्राणियों के साथ, अनेक प्रकार का सम्बन्ध हो चुका है। केवल राग-द्वेष और मोह सन्तप्त जीवात्माओं को विषय-तृष्णा के कारण परस्पर आश्रय दुःख का अनुभव होता है।
इस संसारी तृष्णाओं को त्यागने के लिए सांसारिक वस्तुओं से उदासीन रहना ही संसार
भावना है।