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श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
[ ९।१ योगः। तस्मादेवाय निष्कृष्टार्थः संभवति-सम्यग् ईर्या, सम्यग् भाषा, सम्यग् एषणा, सम्यगादाननिक्षेपसम्यगुत्सर्गरूपा: पञ्चसमितयो भवन्तीति।
सत्यावश्यके + गमने दृष्टिपूते मार्गे शनैः-शनै: पूर्णजागृतिपूर्वक चरणगति: ईर्यासमितिः। शाद्धानुसारानवद्यसंभाषणं भाषासमितिः । उद्गमोत्पादनदोषपरिहारपूर्वकधर्मसाधनग्रहणान्नपान प्रवृति रेषणासमितिः। आवश्यक कार्य रजोहरणपात्र श्वेतवद्धादीनां काष्ठासनादीनां वस्तूनां परिमार्जनपूर्वकग्रहणस्थापनप्रवृत्तिरादाननिक्षेपण समितिः। स्थानं प्रमृज्य विशोध्य मूत्र-पुरीषादी ना मुत्सर्जनम् उत्सर्गसमिति: कथ्यते।
* सूत्रार्थ - सम्यग् ईर्या, सम्यग् भाषा, सम्यग् एषणा सम्यग् आदान निक्षेप और उत्सर्ग ये पाँच समितियाँ है।
* विवेचनामृत * प्रस्तुत सूत्र में पूर्व सूत्र से 'सम्यक' पद की अनुवृत्ति होती है। 'सम्यक' पद का अन्वय प्रत्येक पद के साथ होता है। अतएव यह अर्थ सुस्पष्ट होता है- सम्यग् ईर्या, सम्यग् भाषा, सम्यग् एषणा, सम्यग् आदान निक्षेप तथा सम्यग् उत्सर्ग नामक पाँच समितियाँ होती है।
सम्यक् प्रवृत्ति का ही अपर नाम समिति है। समस्त समितियों का समावेश ईर्या-आदि पाँच में हो जाता है। समिति के सत्प्रवृत्ति स्वरूप है तथा गुप्ति, प्रवृत्ति-निवृत्ति उभय स्वरूप है। अत: गुप्ति में समिति का समावेश हो जाता है फिर भी बाल जीवों को शीघ्र एवं स्पष्ट बोध हो एतदर्थ ही समितियों का पृथग् वर्णन किया गया है।
- मन वचन तथा काया के व्यापारों की विवेक समेत प्रवृति को 'समिति' कहते है। यह पूर्वोक्त गुप्तिका अपवाद माना है। श्री समवायाङ्ग सूत्र में तीन गुप्तियों को चारित्र का उत्सर्ग मार्ग
और इन गुप्तियों का अपवाद मार्ग पाँच समिति को कहा है क्योंकि वह केवल उत्सर्ग को कायम रखने के लिए है। इसके लिए शास्त्रों में उदाहरण आता है कि किसी भी मकान का बीम तड़क गया हो तो ऐसी स्थिति में खम्भा लगाना-सर्वथा उचित रहता है। इसी प्रकार उत्सर्ग मार्ग को कायम रखने के लिए ही अपवाद मार्ग आश्रणीय है, अन्यथा वर्जनीय है।
समितियों का क्रमिक विवेचन सारांशत: इस प्रकार समझना चाहिए
ईर्यासमिति - ईर्या-गमन (गति)। किसी भी प्राणी को किसी प्रकार कष्ट-पीड़ा नहीं हो। ऐसी विवेकिता पूर्वक सावधानी के साथ गति करना 'ईर्यासमिति' है। चारित्र संयम की रक्षा उद्देश करके आवश्यक कार्य के लिए युग प्रमाण भूमिका का निरीक्षण पूर्वक जहाँ लोकवर्ग का गमनागमन १. युगमात्र=चतुर्हस्त प्रमाणं शकटोर्द्धिसंस्थितं (आचाराङ्ग श्रुत. २, अ.३, ३उ.१, सूत्र-११पू) युग अर्थात् बैलों की गाड़ी में जोड़ने की 'धुरी'। वह चार हाथ लम्बी होती है।