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श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे गुणस्थानक के रूप में चौदह भेद बताए गए है। उसमें जिस जिस गुणस्थान के जितनी द्रव्यसंवरता तथा भावसंवरता द्वारा जो बन्धविच्छेदता प्राप्त होती है, उसका विस्तृत स्वरूप कर्मग्रन्थानुशीलन से जानना चाहिए।
उक्त कथन से यह भी स्पष्ट समझ लेना परमावश्यक है कि 'जब तक आस्रव चालू रहता है तब तक संवर नहीं होता है'-ऐसा नहीं है किन्तु जिस भाव से जितना आस्रव रूका है, उस भाव से तथा रूप संवर तत्त्व परिपुष्ट होता है तथा तप-त्याग आदि के अनुष्ठान से पूर्वसंचित कर्म का क्षय भी होता है।
सवंर का स्वरूप, वस्तुत: एक ही प्रकार का है तथापि उपाय भेद से शाद्धकारों ने इस सूत्र में मुख्य छह भेदों का प्रतिपादन किया है -
१. गुप्ति २. समिति ३. धर्म ४. अनुप्रेक्षा ५. परीषहजय ६. चारित्र गुप्त्यादि का विशद विवेचन स्वयं ग्रन्थकार ने आगामी सूत्रों में किया है॥६-२॥
* निर्जरायाः उपायः * ॐ सुत्रम् -
तपसा निर्जरा च ॥६-२॥
卐 सुबोधिका टीका तपसेति। तपसो द्वादश भेदा ग्रन्थकारेणास्मिन् नवमाऽध्याये (एकोनविशति- विशंति तमसुत्राभ्याम्) वक्ष्यन्ते। तपसा संवरः कर्मणां। निर्जरा च भवतः। अमोधोऽयं तपसः प्रयोगः। द्वादशविधतपोभि र्निजरासंवरौ भवत:। तपसि निर्जराप्राधान्यम्, च + कारात् संवरग्रहणाम्॥६-३॥ * सूत्रार्थ - तप से संवर और निर्जरा दोनों होते है॥६-३॥
* विवेचनामृत * तप, जैसे सवंर का उपाय है वैसे ही निर्जरा का भी उपाय है। सामान्यतया तप लौकिक सुख की प्राप्ति का साधन माना जाता है फिर भी निश्चित रूप से वह आध्यात्मिक सुख का साधन है क्योंकि तप एक प्रकारक होते हुए भी भावना भेद से सकाम निष्काम नामक दो प्रकार का होता है। सकाम तप, लौकिक सुख का साधन है तथा निष्काम तप अध्यात्मिक, सुख का साधन है।
नवतत्त्वप्रकरण की व्याख्या में कहा गया है कि नूतन कर्मों के आगमन को जो रोकता हैवह 'संवर' है। इसको 'द्रव्यसवंर' कहते है। कर्मों को रोकने के लिए जीवात्मा जब शुद्ध उपयोग,