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॥ ॐ ह्रीँ अर्हते नमः
ॐ श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् ॥
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नवमोध्यायः fund अष्टमाध्याये बन्धतत्त्वनिरूपणं कृतम्। अधुना क्रमप्राप्तस्य संवरतत्त्वस्य निर्जरातत्त्वस्य च निरुपणं क्रियते
* संवर तत्त्वम् *
ॐ सूत्रम् -
आश्रवनिरोधः संवरः ॥६-१॥
卐 सुबोधिका टीका ॥ आश्रवनिरोधेति। कर्मणाम् आगमनमार्ग आश्रव: कथ्यते। आश्रवस्य द्विचत्वारिंशद् भेदानां प्रतिरोधकस्तावत् संवरः। समासेनेदमत्रावधेयं यदाश्रवप्रतिपक्षी संवरः। यथा यथाहि आश्रवप्रतिरोधो भवति तथा तथा संवरसिद्वी: प्रजायते।
संवृणोति कर्ममार्गमिति संवरः।
* सूत्रार्थ :- आश्रव का निरोध (रूकना) 'संवर' कहलाता है। अर्थात् संवर वह तत्व है, जिससे कर्मो का आश्रव(आना) रूक जाता है॥६-१॥
* विवेचनामृत * जिस निमित्त से कर्मबन्ध होता है, उसे आश्रव कहते है। षष्ठाध्याय(छठे) में बयालीस मौलिक आश्रवों का उल्लेख किया गया है, उनका प्रतिरोधक तत्त्व 'संवर' कहलाता है। संक्षेप में यह ध्यातव्य है कि संवर, आश्रव का प्रतिपक्षी होता है। जैसे-जैसे आश्रव का प्रतिरोध सधता जाता है वैसे-वैसे ही 'संवरसिद्धी' सुदृढ़ होती जाती है। वस्तुत: कर्मों के आगमन को संवृत (बन्द) करने वाला तत्त्व 'संवर' अन्वर्थसंज्ञक है।